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श्री कामघट कथानकम्
अनेक प्रकार से विलाप कर वह उसी बगीची में पति के चले जाने के दुःख को स्मरण करने लगी। और भी हाय, मेरे माता पिता कहाँ ? और मैं कहां ? मैं जहां जहां नजर डालती हूं, वहां सभी जगह पति का अभाव ही देखती हूं। हा प्राणनाथ, हर समय तुम्हारे मुख-कमल को याद करती हुई मेरी आंखें मेघ रूप होकर जल धारा की तरह अस की धारा छोड रही हैं। हे पतिदेव, तेरे बिना समान इस बगीची में मुझे सायंकाल में स्थान देगा ? । और दूसरी बात यह कि तुम्हारे बिना मैं अपना शीलव्रत की रक्षा कैसे करूंगी ? बहुत क्या कहूं, क्या करूं ? हे पतिदेव, तुम्हारे बिना मुझे चारों तरफ कुछ भी नहीं दिखाई देता ? मैं बिना शोभा वाली और बिना विचार वाली हो गई हूं। वह इसतरह अनेक प्रकार खूब चिल्ला चिल्ला कर रो कर और उठकर आखें इधर उधर घुमाकर देखने लगी। फिर कहीं भी पति को अपनी ओर नहीं आते देख अत्यन्त उदासीन होती हुई वहां से उठ चली । अपना पति को ढूंढ़ती हुई बगीची के नजदीक एक कुम्हार को देखा, फिर उसके पास जाकर वह नव युवती पहचान कराने वाली दीनताभरी कोमल वाणी से उसको कहने लगी-हे भाई, तुम मुझे अपनी बहन की तरह मानो तो दूसरे देश की रहने वाली मैं तुम्हें कुछ अपनी दुखभरी बात सुनाऊँ।
अथ दयालुरतिसज्जनः कुम्भकारोऽपि दयां विधाय प्रत्यवोचत्-हे स्वसः ! यत्स्वदुःखं भवेत्तनिवेदय, मया त्वं स्वसृत्वेनांगीकृताऽसि । तनिशम्य सा पाह-हे भ्रातर्महानुभाव ! शृण, मामत्रस्थां मुक्त्वा मे पतिः क्वापि दानग्रहणाय गतोऽस्ति, स चाधुनापर्यन्तं मत्समीपे नो समागतः, तस्य बहुवेला न्यतिगता। अथाहं निर्माथा क्व गच्छामीति विचार्य, अन्यत्र कुत्राप्याधारभूतं त्वत्समानमन्यजनमलभमाना त्वदन्तिके समागमम् । हे प्रिय बान्धव ! अतःपरं त्वमेव ममाधारभूतः शरणभूतश्चासि नान्यः कोऽपि । अथ हे करुणासागर ! ममोपर्यनुग्रहं विधाय मामाज्ञापय यदहं पत्यागमनावधि त्वद्गृहे निवासं कुर्याम् ।
अनन्तर दयालु, अत्यन्त सज्जन कुंभकार (कुम्हार ) भी दया करके बोला-हे बहिन, जो तुम्हारा दुःख है, वह अच्छी तरह कहो, मैंने तुझे अपनी बहन स्वीकार कर लिया। यह सुनकर वह बोलने लगी-- हे मान्यवर भाई, सुनो-मेरा पति मुझे यहां छोड़कर कहीं दान लेने के लिए गया हुआ है और वह अभीतक मेरे पास नहीं आया, उसको बहुत देर हो गई। अब, मैं पति के बिना कहां जाऊं ? यह विचार कर, कहीं दूसरी जगह तुम्हारे समान किसी दूसरे व्यक्ति को सहारा नहीं पाती हुई तुम्हारे समीप आई हूं। हे प्यारे भाई, अब इसके आगे तुम ही मेरा सहारा हो और रक्षक हो, दूसरा कोई भी नहीं। हे दया सागर ! अब, मेरे ऊपर दया करके मुझे आज्ञा दो कि मैं अपने पति के आने तक तुम्हारे घर में रहूं।
एवंविधानि स दुःखालापितानि विनयसुन्दरी-वचनान्याकर्ण्य दयार्द्रचेतसा परोपकारिणा
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