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श्री कामघट कथानकम्
४६
यतः-- क्यों कि
रक्तत्वं · कमलानां, सत्पुरुषाणां परोपकारित्वम् । असतां च निर्दयत्वं, स्वभावसिद्धं त्रिषु त्रितयम् ॥ ७॥
कमलों में लालाई, सत्पुरुषों में दूसरे की भलाई और असज्जनों ( दुष्टों ) में निर्दयपना ये तीनों तीनों में स्वभाव सिद्ध ( स्वतः सिद्ध-अपने आप मौजूद ) हैं ।। ६७ ॥
अपि च
और भी
काकस्य गात्रं यदि काञ्चनं स्यात् , माणिक्यरत्नं यदि चञ्चु-देशे। एकैकदेशो ग्रथितो मणीभि-स्तथापि काको न तु राजहंसः ॥ १८ ॥
कौए का देह यदि सोना का हो और उसके चोंच में माणिक-रत्न हो, तथा प्रत्येक अंग मणियों से गूंथा हुआ हो, फिर भी कौआ राजहंस कभी नहीं हो सकता ।। ६८ ॥
अरे ! एष दीनोऽधर्मी धर्मगुणं कथं वेत्ति ? धर्मगुणन्तु धर्मी विद्वानेव जानाति ।
अरे ! यह दीन और पापी राजा धर्म के गुणों को किस तरह जाने ? क्योंकि, धर्म के गुण तो विद्वान् पुण्यात्मा ही जानते हैं -
यतः
क्कोंकिप्रतिपच्चन्द्रं सुरभि-नकुलो नकुली पयश्च कलहंसः । चित्रक-वल्ली पक्षी, शुद्धं धर्म सुधीर्वेत्ति ॥ ६ ॥
पड़िवा के चन्द्रमा को सुरभि ( पृथिवी ), नकुली को नकुल, और दूध को राजहंस, चित्रक बल्ली को पक्षी और शुद्ध धर्म को बुद्धिमान ही जानते हैं ।। ६६ ।।
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