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श्री कामघट कथानकम
२६ पूजाभक्तिभिः सधर्मिवात्सल्यैर्मुनिभ्यो बहुतरैर्दानसम्मानश्च सम्यग् जैनशासनोन्नतिं विधाय स्वजन्मसाफल्यं मन्यमानः शास्त्रवर्णिततीर्थयात्राफलभावनां भावयमानस्तीर्थ तुष्टाव । ___इस लिए उस पापी के पास थोड़ी भी मुझे समाधि (सुख चैन ) नहीं हुई। फिर कामघटने भूख से पीड़ित मंत्री को इच्छित भोजन दिया, बाद में दोनों चीजों को लेकर मंत्री आगे चला। अब इसी बीच में पूरब देश का एक बड़ा सेठ अधिक मुनाफा प्राप्तकर एक लाख मनुष्यों का एक संघ निकाल कर शत्रुजय आदि पंचतीर्थों की यात्रा के लिए उसी संघ के साथ निकला। वे संघ के लोग रास्ते में मिले हुए ग्राम-तीर्थों की बंदना करते हुए शत्रुजय में आए। वहां भगवान् ऋषभ जिनेश्वर के गिरनार में और नेमि भगवान के अष्टाह्निक महोत्सव के साथ पूजा-भक्ति के द्वारा और सामीवच्छलों से मुनिवरों को अनेक तरह के दान और सम्मान से अच्छी तरह जिन शासन की उन्नति करके अपने जन्म को सफल मानते हुए शास्त्रों में कहे हुए तीर्थयात्रा के फलों की भावना को विचारते हुए तीर्थ की स्तुति करने लगे।
यतःक्योंकिआरम्भाणां निवृत्तिविणसफलता संघवात्सल्यमुच्चैनैमल्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्णचैत्यादिकृत्यम् । तीर्थोन्नत्यं नितान्तं जिनवचनकृतिस्तीर्थसत्कर्मकृत्यं, सिद्धेरासन्नभावः सुरनरपदवी तीर्थयात्राफलानि ॥ ५७ ॥
तीर्थों की यात्रा करने से आरंभ ( कर्मों ) की निवृत्ति होती है, द्रव्य मिलता है, संघ में सद्भाव होता है, दर्शन की निर्मलता होती है, प्रेमी जनों के हितकारी होता है, जीर्ण चैत्य का पुनरुद्धार होता हैं, तीर्थों की अत्यधिक उन्नति होती है जिनेश्वर के बचन पाले जाते हैं, तीर्थों में सत्कार्य का काम होता है, सिद्धि नजदीक आती है, देवता या मनुष्य की योनि प्राप्त होती है ॥ ५७॥
छ?णं भत्तेणं, अपाणएणं तु सत्तजत्ता य । जो कुणइ सत्तुंजए, सो तइए भवे लहइ सिद्धिं ॥ ५८ ॥ (संस्कृत छाया)
षड्भिः भक्तः अपानकैः तु सप्त यात्राश्च ।
यः करोति शत्रुजये स तृतीये भवे लभते सिद्धिम् ।। ५८ ॥ जो प्राणी शत्रुजय तीर्थराज में भक्तिपूर्वक निर्जलाहार रहकर छठ (तपस्या विशेष ) करता है और सात बार यात्रा करता है यह तीसरे जन्म में सिद्धि को प्राप्त होता है ॥ ५८ ।।
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