Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ श्री कामघट कथानकम किं किंन कयं को न पुच्छिओ, कह कह न नामिअं सीसं । दुब्भरउअरस्स कए किं न कयं किं न कायब्बं ॥ ५३ ॥ (संस्कृत छाया ) किं किं न कृतं को न पृच्छितः, कुह कुह न नामितं शीर्षम् । दुर्भरोदरस्य कृते, किं न कृतं किं न कर्त्तव्यम् ।। ५३ ॥ इस पापी पेट को पूरा करने के लिए क्या क्या नहीं किया ? किसको नहीं पूछा ? कहां कहां मस्तक नहीं नवाया ? और क्या नहीं किया ? और क्या नहीं करूंगा ? अर्थात् सब कुछ किया और करना भी पड़ेगा-केवल इस पापी पेट के लिए ही -आचार्य शंकरने भी लिखा है --- "उदर-निमित्त बहु-कृत-वेषः" ।। ५३ ॥ प्रहरे दिवसे जाते, क्षुधा संबाधते तनुम् । धैर्यकार्यविनाशः स्या-त्वां विना म्रियतेऽशन ! ॥ ५४॥ हे भोजन देव, एक पहर दिन उठते ही भूख मेरे शरीर को बहुत तकलीफ देती है और तेरे बिना धैर्य और कार्य तो नष्ट होते ही हैं पर प्राणी भी मर जाता है। कहा भी है भूखे भजन न होंहि गोपाला । लो यह अपनी कंठी माला ॥ ५४॥ अपि च-- और भीजीवंति खम्गछिन्ना, अहिमुहपडिया वि केवि जीवंति । जीवंति जलहिपडिआ क्षुहाछिन्ना न जीवंति ॥ ५५ ॥ तलवार से काटे गए प्राणी प्रायः जी सकते हैं, सर्प के मुंह में पड़े हुए भी कोई जीते हैं और कोई समुद्र में गिरे हुए प्राणी प्रायः जो जाते हैं मगर भूख रूपी महा शस्त्र से काटे हुए प्राणी कभी जिंदे नहीं रह सकते ।। ५५ ।। मन्त्रिवाक्यमेवं निशम्य दंडोऽवदत्-अन्यत्किमपि कार्य कथय तदहं करिष्यामि, तर्हि कामघटमानयेति मन्त्रिणोक्ते समानयामीत्युक्त्वाऽऽकाशमार्गेण दंडश्चचाल, गतस्तत्र यत्र राक्षसः । For Private And Personal Use Only

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