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कामघट. कथानकम
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पुनरमात्येनोक्तम् — हे पलाद ! मच्छरीरभक्षणेन तव कार्य सरसरसवत्या वा १ तेनोक्तम् तर्हि - सरसां रसवतीं देहि, तदा तेन मन्त्रिणा कामघटप्रभावेण यथेष्टामत्यपूर्वी रसवतीं तस्मै दत्त्वा दिव्याहारो भोजितः । ततः सन्तुष्टेन फलादेनोक्तम् -- एवंविधा रसवती त्वया कुतो दत्ता ? तदा धर्मिणाऽसत्यपापभीरुणा मन्त्रिणा सत्यमेवोक्तं कामघटप्रभावेणेति । यतः
सत्यवाचि विभवः पदे पदे, सत्यवाचि सुयशः पदे पदे,
फिर मंत्रीने कहा- हे राक्षस, मेरे शरीर को भक्षण करने से तुम्हें काम है या रसदार रसोई से। राक्षसने कहा - तो रसदार रसोई मुझे दो, तब उस मंत्रीने कामघट के प्रभाव से उसकी इच्छा के अनुसार अपूर्व रसोई उसे देकर अच्छी तरह भोजन कराया । तब खुश होकर राक्षसने कहा- तुमने ऐसी रसोई मुझे कहां से ( लाकर ) दी ? तब असत्य और पाप से डरने वाला धर्मी मंत्रीने सच्चा सच्चा कहा कि कामघट के प्रभाव से । क्योंकि—
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सत्यवाचि सुहृदः पदे पदे सत्यवाचि सुखमेव सर्वतः ॥ ४८ ॥
सच बोलने वालों के पद पद में ऐश्वर्य होता है, सच बोलने वालों के पद पद में मित्र होते रहते हैं, सत्य बोलने वालों के पद पद में यश-कीर्त्ति होती रहती है और सत्य बोलने में सभी तरह सुख ही होता है ॥ ४८ ॥
ततो राक्षसेन कामघटो याचितस्तदा मन्त्रिणोक्तम् — एवंविधं कामघटमहं कथं तत्रार्थयामि ? तेनोक्तम् – यदि त्वमर्पयिष्यसि तदाऽहमतः परं हिंसां न करिष्यामि तव च महत्पुण्यं भविष्यति । अहमपि तत्प्रतिफले सकलकार्यकरं रिपुशस्त्रनिवारकं देवताधिष्ठितं सर्वोत्तमं दन्डमर्पयिष्यामि, अतस्त्वं मे कामघटं समर्पय । मन्त्रिणोक्तमहं समर्पयामि, तथापि तवाधर्मेण सर्वथा न स्थास्यति । यतः --
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फिर राक्षसने कामघट मांगा। तब मंत्रीने कहा — इसतरह का कामघट मैं तुम्हे कैसे दूं ? उस राक्षसने कहा - यदि तुम मुझे कामघट दोगे तो मैं अब यहां से आगे हिंसा नहीं करूंगा और तुमको बड़ा पुण्य होगा । मैं भी इसके बदले में सब कार्य करने वाला, शत्रु के शस्त्र को निवारण करने ( रोकने) वाला देवता से अधिष्ठित सर्वश्रेष्ठ दण्ड ( डंडा-लाठी ) दूंगा । इसलिए, तुम मुझे कामघट दो । मंत्रीने कहा मैं देता हूँ — मगर तुम्हारे अधर्म (पाप) से वह कामघट तुम्हारे पास किसी तरह भी नहीं रहेगा । क्योंकि
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