________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री कामघट कथानकम्
१६
बिना दांत का हाथी, बिना बेग (चाल) का घोड़ा, विना चन्द्रमा की रात्रि, बिना सुगन्ध का फूल, बिना जल का सरोवर, बिना छाया का वृक्ष, बिना नमक का भोजन ( व्यंजन ), बिना गुण का लड़का, (पुत्र) बिना चारित्र का यती (साधु-विरागी), बिना द्रव्य का महल जैसे नहीं शोभता है उसी तरह बिना धर्म का मनुष्य भी नहीं शोभता है ।। ४१ ।।
पुनर्यत्र धर्मी नरो गच्छति तत्र सर्वत्र वृक्षो लताभिरिव समृद्धिबल्लिीभिर्वेष्टयते । यतः
फिर जहां धर्मात्मा आदमी जाते हैं वहां उनके पास सम्पत्ति इसतरह स्वयं आजाती है जैसे किसी वृक्ष पर लता स्वयं चारों ओर से घेर कर चढ जाती है।
पंसां शिरोमणीयन्ते, धर्मार्जनपरा नराः । आश्रीयन्ते च संपद्भि-लताभिरिव पादपाः ॥ ४२ ॥
ओ व्यक्ति धर्म करते हैं वे पुरुषों में शिरोमणि के समान हो जाते हैं और जैसे वृक्षों को लताएं चारो तरफ से घेर लेती हैं उसी तरह उस धर्मात्मा को सम्पत्ति भी चारो तरफ से लिपट लेती है ।। ४२ ।।
अथाग्रे चलन्मंत्री तस्यामेवाटव्यां समागतः । गच्छन्मनसि चिन्तयति स्म---अहो ! सैवाटवी समागता, सोऽथ पलादो मां मिलिष्यति मत्प्रतिज्ञानुकूलं च मां भक्षयिष्यति कोऽत्र मे शरणं ? पूर्वपुण्यं विना। यतः
अनन्तर आगे चलता हुआ वह मंत्री उसी जंगल में आगया ( जहां आते समय राक्षस से सुलाकात हुई थी ) और जाता हुआ मन में विचार करने लगा-अरे यह तो वहीं जंगल आगया. अब यहां वह राक्षस मुझे मिलेगा और मेरी प्रतिज्ञा ( वादा ) के अनुसार मुझे खायगा, सो पूर्वपुण्य के बिना यहां मेरा रक्षक अन्य कौन होगा ? क्योंकि
वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा, रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि ॥ ४३ ॥
बन में, संग्राम में, शत्रु-जल और अग्नि के बीच में, महासमुद्र के बीच में और पहाड़ के ऊपर सोये हुए, मतवाले दुःखित प्राणी को पूर्वकृत पुण्य ही रक्षा करते हैं ॥ ४३ ॥
___इतश्चान पलादोऽपि मिलितः, तदेव तेनोक्तम्---हे पुरुषोत्तम ! स्वोक्तवचनमथ पालय । यतः
For Private And Personal Use Only