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ध्यायामि
माद्य
नो जिनेश्वरमहर्निशमेव
सेवे ॥ ४० ॥
मैं चिन्तामणि को नहीं चाहता, कल्पवृक्ष की चाहना भी नहीं है और न कामधेनु को ही देखना चाहता हूं न धन-दौलत का ही ध्यान है, किन्तु एक यह कि – अमूल्य गुणों से युक्त भगवान आदि जिनेश्वर को ही दिन-रात सेवा करूं ॥ ४० ॥
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श्री कामघट कथानकम्
निधिमनर्घ्यगुणातिरेक
इत्यादिस्तुत्या प्रमुदितः प्रतिमारक्षः कपर्दियक्षः प्रत्यक्षो बभूव । तेन जिनभक्तिस्तुतिसन्तुष्टेन बहिर्गत्वा मंत्रिणे कामघटः समर्पितः । तदा मन्त्रिणोक्तम् – भो यक्षेन्द्र ! अहमेनं घटं कथं गृह्णामि कुत्र वा स्थापयामि ? अनेन समीपस्थेन पुरुषस्य लज्जा स्यात् । ततो देवेनोतमनुत्पाटित एवादृष्टस्सन्नयं घटस्तव पृष्ठे समागमिष्यति, पुनस्तेऽयं मनोवाञ्छितार्थं पूरयिष्यति । एतन्मन्त्रणापि स्वीकृतं, ततः स मन्त्री कृतकृत्यस्सन् कामकुम्भं लात्वा स्वनगरं प्रति चलितो मार्गे विचारयति स्म – ममेदं धर्मस्य महात्म्यं धर्मेण विना नरोऽपि न शोभते, यथेष्टं च कार्य
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किमपि न स्यात् । यतः -
इत्यादि स्तुति से प्रसन्न होकर प्रमिता का रक्षक महादेव का यक्ष प्रत्यक्ष ( सामने ) हुआ । और उस यक्षने भगवान् की भक्ति भरी स्तुति से खुश होकर बाहर जाकर मंत्री को 'कामघट' दिया । तब मंत्री ने कहा- हे यक्षराज, मैं इस कामघट को किसतरह ग्रहण करूं या कहां स्थापन करूं ? क्योंकि इसके पास में रहने से पुरुष को लज्जा होगी । तब यक्षने बोला कि - बिना उठाए हुए ही यह अदृश्य होकर तुम्हारे पीछे जायगा और यह तुम्हारा सारा मनोरथ पूरा कर देगा। यह मंत्रीने भी स्वीकार कर लिया । अनन्तर वह मंत्री कृतकृत्य ( कार्य में सफल ) होकर कामघट को लेकर अपने नगर की ओर चला और रास्ता में विचारने लगा- - मुझे यह धर्म का ही माहात्म्य है, धर्म के बिना मनुष्य शोभा नहीं पाता, और उसकी इच्छाएँ कुछ भी पूरी नहीं हो पाती है ; क्योंकि
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निर्दन्तः करटी हयो गतजबचन्द्रं विना शर्वरी, निर्गन्धं कुसुमं सरो गत जलं छायाविहीनस्तरुः । भोज्यं निर्लवणं सुतो गतगुणश्चारित्रहीनो यतिः, निर्द्रव्यं भवनं न राजति तथा धर्मं विना मानवः ॥ ४१ ॥