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श्री कामघट कथानकम्
पटुता वाली कराडों जिह्वाएँ मुझे हो जाएं, तो भी तीर्थेश्वर की पूजा का फल वर्णन करने के लिए मैं समर्थ नहीं हो सकता हूं ॥ ३६॥
मिथ्याम्बु-लहरी-धूतं, निमज्जन्तं भवार्णवे । कुग्राह-ग्रसितं नाथ !, मामुत्तारय तारय ॥ ३७॥
हे भगवान् , मिथ्यात्वरूपी जल तरंग से कम्पित, संसार रूपी समुद्र में डूबते हुए और दुष्टग्राह से प्रसित मुझे पार करो, पार करो ॥ ३७॥
जन्म - मृत्यु - जरा - रोग - शोक - सन्ताप - वैरिणः । पृष्ठतो धावतो देव !, मयि वारय वारय ॥ ३८ ॥
हे देव, मेरे पीछे दौड़ते हुए-जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, शोक और संताप रूपी मेरे शत्रुओं को आप रोक दो, रोक दो ॥३८॥
ऊध्वं त्रैभुवनं चतुर्गतिभवं हन्तुं कषायादिकान्, विच्छेत्तुं विकथां चतर्विधसुरप्रीतिं च कर्तुं तथा । वक्तुं धर्मचतुष्टयं रचयितुं संघं चतुर्धा ध्रुवं, व्याख्यानावसरे चतुर्विधकृताऽऽवक्त्रो जिनः पातु वः ॥ ३६ ॥
चार प्रकार की गतियों से उत्पन्न तीनों लोकों से परे कषाय आदि को मारने के लिए, बुरी बातों को नाश करने के लिए, और चार प्रकार के देवों की प्रीति करने के लिए, चार प्रकार के धर्म को उपदेश देने के लिए तथा चार प्रकार के संघ को निर्माण करने के लिए व्याख्यान के समय में जिनके चार प्रकार के मुंह हो गए अर्थात् उपयुक्त बातें जिन भगवान् के व्याख्यान के 'समय चारों ओर से सुनाई देने लगी वे भगवान् जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें ।। ३६ ।।
अपि चऔर भीचिन्तामणिं न गणयामि न कल्पयामि, कल्पद्रुमं . . मनसि. कामगवीं .. न .. वीक्षे ।
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