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श्री कामघट कथानकम
है। इस लिए, वह नास्तिकवाद छोड़ देने ही लायक है। इस तरह मंत्री की बात को सुनकर भी राजा ने अपना बुरा आग्रह नहीं छोड़ा। इसलिए लोक में राजा का नाम पापबुद्धि हुआ और मंत्री का नाम धर्मबुद्धि हुआ। उसके बाद सदा दोनों का पुण्य-पाप के विषय में विवाद होता था और मंत्री तो उस राजा को धर्मात्मा बनाने के लिए नित्य उस राजा के साथ विवाद करता था। क्योंकि--
यात्रार्थ भोजनं येषां, दानार्थं च धनार्जनम् । धर्मार्थ जीवितं येषां, ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २२ ॥
जो लोग शरीर-रक्षा के लिए भोजन करते हैं और दान के लिए धन कमाते हैं एवं धर्म के लिएजीते हैं वे स्वर्ग में जाते हैं ।। २२ ।।
अथैकदा हास्ययुक्तवचनेन राज्ञोक्तम्-भो मन्त्रिन् ! त्वं बहुतरं पुण्यं मन्यसे, तर्हि तव स्वल्पैव लक्ष्मीः कथं ? पुनर्मम पापादेव राज्यादिसुखं कथं जातम् ? एतग्निशम्य मन्त्रिणा चिन्तितं खल्वेष जडमतिः, अहह ! यो यस्य शुभाशुभस्वभावः पतितः तं कथमपि नैव मुंचति । यतः
फिर एक समय मसकरी करते हुए राजाने कहा, हे मंत्री, जब तुम धर्म को अधिक उत्तम मानते हो तब तेरे पास थोड़ी ही लक्ष्मी (धन-दौलत ) क्यों है और मेरे पाप से ही राज्य आदि का इतना अधिक सुख क्यों हो गया ? यह सुनकर मंत्रीने विचार किया कि यह राजा जड़बुद्धि है, ओह ! जिसका जो अच्छा बुरा स्वभाव हो जाता है वह उस स्वभाव को किसी तरह भी नहीं छोड़ता है। क्यों कि
कर्परधल्या रचितस्थलोऽपि, कस्तूरिकाकल्पितमूलभागः । हेमोदकुंभैः परिषिच्यमानः, पूर्वान्गुणान्मुंचति नो पलाण्डुः ॥ २३ ॥
कपूर की धूली ( रज-चूर्ण ) से जमीन ( खेत ) को अच्छी तरह सुवासित (सुगंधमय ) कर दिया जाय और जड़ में कस्तूरी बिछा दिया जाय एवं सुवर्ण के घडों में भरे जल से पटाया-छिड़काया जाय फिर भी प्याज अपने गुणों ( दुर्गन्ध-बदबू ) को नहीं छोड़ता है ॥ २४ ॥
माधुयं चेक्षुखंडे जगति सुरभिता चंपकस्य प्रसूने, शैत्यं श्रीखंडखंडे भ्रमरपरिकरे चातुरी राजहंसे ।
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