Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ समाधान मांगा। नाभिराज ने आशा और विश्वास के साथ ऋषभ को सक्षम समझकर राजा बना दिया। अपायज्ञ और उपायज्ञ ऋषभ ने समाजव्यवस्था की। राजनीति का शुरूआत हुई। दण्डनीति का निर्धारण किया। उन्होंने अकर्म युग से कर्म युग में प्रवेश किया। ऋषभ ने मनुष्य को शिक्षा और दीक्षा से विज्ञ बनाया। सामाजिक मूल्यों की स्थापना की। उन्होंने स्त्री और पुरुष के बीच क्षमताओं और अधिकारों का भेद नहीं समझा। समानता की भूमिका पर पुत्रों की तरह पुत्रियों को भी लिपि विद्या और अंक विद्या गणित की शिक्षा दी। युगीन समस्याओं के समाधान में ऋषभ का राजनैतिक नेतृत्व सामने आया। ऋषभ ने राजशासन का संचालन किया। ऋषभ की समाज-व्यवस्था लोकप्रिय, हितैषी और दूरगामी फल देने वाली थी। उसमें निज पर शासन, फिर अनुशासन का ध्येय जुड़ा था। ऋषभ ने सबका पोषण किया। इसलिए शोषण का जन्म नहीं हुआ। __आजीविका वृत्ति के संसाधनों का निर्माण, विकास, नियोजन सही ढंग से हो, इसलिए उन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प कर्म की व्यवस्था की। उन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीन वर्गों की स्थापना की, क्योंकि बदलती परिस्थितियों में व्यवस्था संचालन के लिए कर्म का विभाजनऔर दायित्व निश्चित करना जरूरी बन गया था। यद्यपि यौगालिक युग में भोगभूमि में कर्म करने की और जाति भेद की जरूरत ही नहीं थी पर अब समुदाय के बीचसंविभाग जरूरी था, अत: उन्होंने आजीविका को व्यवस्थित रूप देने और स्वस्थ जीवन शैली के सम्यग् संचालन के लिए वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप निर्मित किया। सबसे पहले प्रजा की सृष्टि यानी विभाग बनाये। आजीविका के नियम निर्धारित किये फिर मर्यादा का उल्लंघन न हो, इसलिए अनुशासन की आचार-संहिता बनायी। आचार्य जिनसेन ने ऋषभ देव को एक हजार से भी अधिक नामों से अभिहित किया है- इक्ष्वाकु, गौतम, काश्यप, मनु, कुलधर, प्रजापति, विधाता, विश्वकर्मा आदि। ऋषभ से कर्तृत्व युग का प्रारम्भ हुआ। उन्होंने जीवन शैली का- खान-पान, रहन-सहन, भाषा, व्यवहार, विचार, संस्कार, सुख-दुःख की सहभागिता की नयी रचना की। उन्होंने काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष- चार पुरुषार्थों का आश्रय लिया, जो परिपूर्ण जीवन की यथार्थता का दर्शन है। भोग और ऐश्वर्य सम्पन्न ऋषभदेव का राज्यशासित समय पुण्यों का प्रतिफल समझा जा सकता है। आचार्य जिनसेन लिखते हैं कि धर्म का फल पुण्य है। ऋषभ के पुण्य की विरासत सीमातीत थी, अत: उन्हें हर कदम पर सुख-समृद्धि मिलती गयी। ऋषभ चरमशरीरी जीव थे, इसी जन्म में उन्हें भवमुक्त होना था, इसलिए साधुता के संस्कार याद दिलाने के लिए इन्द्र ने नृत्य का आयोजन किया और इस नाटक में अभिनय करती नृत्याङ्गना, नीलाञ्जना का आयुष्य क्षीण होने से उसे अदृश्य होते हुए देखकर मन संकल्पित हो उठा। मन में वैराग्य जागा, संसार की क्षणभंगुरता समझी। दृश्य दर्शन बनकर दृष्टि जगा गया। -24