Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
View full book text
________________ षट्खण्डागम की धवला-टीका का भाषायी विश्लेषण - वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ यह स्पष्ट ही है कि सूत्र सूत्र-शैली में होते हैं और टीका व्याख्यान-शैली में। षट्खण्डागम आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि की सूत्र-रचना है और 'धवला' आचार्य वीरसेन स्वामी की षटखण्डागम के सूत्रों पर टीका। टीका के प्रमुख रूप में निम्न तीन काम होते हैं१. मूल सूत्र में जो सूत्रबद्ध रूप में कहा गया है, उसका व्याख्यान करना। 2. इस व्याख्यान करने में जो प्रचलित परम्पराएँ हैं, उन परम्पराओं को दिग्दर्शित करते हुए सूत्र को सूत्र-मूल की परम्परा के साथ जोड़ना और सहबद्ध परम्पराओं के साथ सूत्र के रिश्ते को उजागर करना। 3. इस दूसरे काम को करने के लिए कई बार टीकाकार को अपनी परीक्षा भी देनी पड़ती है, इसीलिए वह यह सब काम कई स्थलों पर सूत्र के साथ रहते हुए और कई स्थलों पर सूत्र के विरोध में रहकर भी करता है। उक्त तीनों कामों को करने के लिए टीकाकार को किसी-न-किसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है, वह जिस भाषा का सहारा लेता है, वह भाषा ही टीका-भाषा कहलाती है। कई टीका ग्रन्थों के सन्दर्भ में टीका-भाषा और सूत्र-भाषा एक देखी जाती है, कई ग्रन्थों के सन्दर्भ में टीका-भाषा और होती है और सूत्र-भाषा कुछ और होती है तथा कई के सन्दर्भ में टीका-भाषा सूत्र-भाषा होते हुए भी कुछ और भी होती है, पर एक बात जरूर है कि उपर्युक्त तीनों तरह की टीका-भाषाएँ सूत्र में निहित, गूढ़ या गुह्य अर्थ को उद्घाटित, व्याख्यायित करने वाली होती हैं और यदि वह वह नहीं है तो वह समुचित टीका-भाषा नहीं कही जा सकती। धवला उपर्युक्त तीनों प्रकारों में तीसरे प्रकार की भाषा वाली टीका है। भाव यह है कि धवला के मूल सूत्र प्राकृत में हैं, पर धवला प्राकृत-भर में नहीं है। प्राकृत के साथ-साथ वह संस्कृत को भी साथ लेकर चलती है, बल्कि कई स्थलों पर संस्कृत प्रमुख रूप में दिखती है और प्राकृत अंश कुछ गौण रूप से, लेकिन इससे तीन बातें साफ उजागर हो जाती हैं१. सूत्र-रचना काल की भाषा प्राकृत रही है, 2. टीका काल में प्राकृत बौद्धिक संसार में अपना वह महत्त्व नहीं रख पा रही थी, जो सूत्र-रचना काल में उसका था और इसलिए उसे अपने साथ-साथ उस काल विशेष में महत्त्वपूर्ण रूप से उभरने वाली संस्कृत को भी जोड़ना पड़ा। 3. यद्यपि सूत्र और टीका दोनों की भाषाएँ बौद्धिक संसार की भाषाएँ हैं, ठीक लोकव्यवहार की भाषाएँ नहीं, पर लोकव्यवहार से जुड़ी भाषाएँ हैं, क्योंकि अगर ये लोकव्यवहार को अनदेखी करने वाली भाषाएँ होती तो टीकाकार चाहे जिस भाषा में टीका करता और वैसी स्थिति में लोक में विद्यमान भौतिक संसार की चिन्ता न करता, पर टीकाकार ने ऐसा नहीं किया, इससे स्पष्ट है कि धवला टीका की भाषा बौद्धिक संसार की भाषा होते हुए भी लोक मान्य भाषा के लोकव्यवहार की स्थिति से जुड़कर रहने वाली भाषा है। --141