Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ जैन ज्योतिष-परम्परा का वैशिष्ट्य - डॉ. जयकुमार एन्. उपाध्ये, नयी दिल्ली जैन ज्योतिष विद्या मनुष्य स्वभाव से चिन्तनशील एवं अन्वेषक प्राणी है। इस प्रवृत्ति के कारण वह ज्योतिष विद्या के साथ अपने जीवन का सम्बन्ध जोड़ने के लिए प्रयत्नशील है। वह वर्तमान के साथ अपने आगामी जीवन के विद्याओं को जानने की तीव्र इच्छा रखता है। मन-वचन-काय की विविध प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने में ज्योतिषशास्त्र का योगदान महनीय है। मन की प्रवृत्ति के कारण मानव कहलाने वाला वह अपने मन के विश्लेषणों को जानकर अपने चित्त-यात्रा के समस्याओं के समाधान के लिए लालायित है। जीवन की समस्त अवस्थाओं का विश्लेषण फलित ज्योतिष के माध्यम से किया जाता है। इस शास्त्र के आधार से जीवन के अनेक रहस्यों का उदघाटन समय से पूर्व सूचक निमित्त से प्राप्त किया जा सकता है। जैन मान्यता में ग्रह कर्मफल के सूचक बतलाये गये हैं। अत: वे सूचक निमित्त मात्र हैं, कारक निमित्त नहीं हैं। जिस प्रकार ट्रेन का सिग्नल ट्रेन को लाने वाला नहीं होता है, ट्रेन आने की सूचना मात्र देता है। इसी प्रकार निश्चित राशि अंशों में रहने वाले ग्रह व्यक्तियों के कर्मोदय, कर्म का क्षयोपशम अथवा कर्मक्षय की सूचना दे देते हैं। प्राकृत-भाषा के सुप्रसिद्ध चम्पूकाव्य कुवलयमाला में लिखा है कि "पुव्वकय कम्म व रइयं सुहं च दुक्खं च जायए देहे" अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के उदय क्षयोपशम आदि के कारण शरीरधारियों को सुख-दुःख की प्राप्ति होती है। सुख-दुःख को देने वाला ईश्वर या अन्य कोई दिव्य शक्ति नहीं है। जीव के प्रदेश के परिस्पन्द में (हलन-चलन कम्पन) चुम्बक की तरह आकर्षण शक्ति मौजूद है। कर्मोंका यह आकर्षण आस्रव कहलाता है। आस्रव का अर्थ है कर्मों के आने का द्वार। जब मन-वचन-काय की क्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से आकर्षित हुई तो कार्माण वर्गणाएं जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप से ठहर जाती हैं। यही प्रक्रिया जीव के साथ कर्मों का बंध कहलाता है। जीव की कर्मबन्धन सहित अवस्था संसार अवस्था कहलाती है। जीव के साथ बंधने वाले कर्म दो प्रकार के होते हैं, घातियारूप और अघातियारूप। घातिया कर्म जीव के निज गुणों का घात करते हैं अर्थात् उन्हें प्रकट होने नहीं देते हैं और अघातिया कर्म जीवन के बाह्य साधन सामग्री के साथ सम्बन्ध रखते हैं। घातिया कर्म चार प्रकार के हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। इसी प्रकार अघातिया कर्म चार प्रकार के हैं- वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र। जैन मान्यता में अट्ठासी ग्रह, अगणित नक्षत्र और अगणित तारिकायें बतलायी गयी हैं, पर इनमें प्रधानमात्र नवग्रह ही हैं और ये ज्ञानावरणादि कर्मों के सूचक हैं। क्र. कर्म सूचकग्रह प्रकाशवर्ण प्रतीकरत्न . ज्ञानावरणीय बृहस्पति पुखराज 2. दर्शनावरणीय बुध हरा सुवर्ण पन्ना -182