Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 210
________________ जैन पुस्तकालयों के विकास के उपाय एवं दिशा-निर्देश - डॉ. संजीव सर्राफ जैनागमों में शिक्षा एवं ज्ञान के बारे में विस्तृत चर्चाएं मिलती है जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।। जिनवाणी में उसी को ज्ञान कहा गया है जिससे तत्त्वों का बोध होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है तथा जिससे आत्मा विशुद्ध होती है, यह आध्यात्मिक शिक्षा का स्वरूप है। जैनागमों में आचार्य, उपाध्याय एवं श्रमण-श्रमणियों को विद्या प्रदान करने का अधिकार दिया गया। आचार्य श्रुतज्ञान के प्रकाशक होते है। कहा है जह दीवा दीवसमं, पईप्पए सो य दीप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्यंति अप्पं च परं च दीवंति।। प्राचीनकाल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था तब स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कण्ठस्थ रखनेका प्रचलन था। शिष्य गुरुओं से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजोकर रखते थे। जैन आचार्यों ने स्वाध्याय के निम्न पांच अंगों का विस्तृत विवेचन किया है। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश। आज जो जैन-साहित्य उपलब्ध है वह सब भगवान् महावीर की उपदेश-परम्परा से सम्बन्धित है, उनके निर्वाण के बाद उनके गणधरों के संगठित प्रयासों से जैन-साहित्य के ग्रन्थों पाण्डुलिपियों के संग्रहण का भी कार्य होता रहा। भगवान् महावीर के प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति थे। उन्होंने भगवान् महावीर के उपदेशों को अवधारण करके बारह अंगों व चौदह पूर्व के रूप में निबद्ध किया। जो इन अंगों और पूर्वो का परगामी होता था, उसे श्रुतकेवली कहा जाता था। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीन केवलज्ञानी हुए और उनके पश्चात् पांच श्रुतकेवली हुए जिनमें से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। पाटलिपुत्र में भद्रबाहु स्वामी की अनुपस्थिति में जो अंग साहित्य संकलित किया गया, दूसरे पक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया, यहीं से जैन संघ में श्वेताम्बर समुदाय का जन्म हुआ और साहित्य जुदा-जुदा हो गया। जिनवाणी मोक्ष की सीढ़ी है। हमारे आचार्यों ने यहाँ तक कहा है कि जिनवाणी की पूजा साक्षात् जिनेन्द्र की पूजा है, परन्तु दुर्भाग्य से जैन धर्मावलम्बी मध्यकाल से लेकर अभी तक इस सत्य तथ्य से कम परिचित एवं कम प्रभावित रहे इसलिए जैन-ग्रन्थों में निहित विश्व के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-विज्ञान का ठोस व्यापक शोधपूर्ण ज्ञान स्वयं भी नहीं रखते है तथा इसका प्रचार-प्रसार विश्व मंच तथा विश्व स्तर पर नहीं करते, कराते हैं। - 200--

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