Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 196
________________ उक्त अर्थक्रिया सक्रिय-निष्क्रिय, मूर्त-अमूर्त आदि समस्त अस्तित्वयुक्त पदार्थों में अनादिनिधन रूप से, सूक्ष्मतम निरवच्छिन्न आन्तरिक परिणति- परम्पराओं के रूप से प्रवर्तमान रहती है। दूसरे शब्दों में यह 'अर्थक्रिया' अनेकान्तात्मक पदार्थमात्र के अस्तित्व या सत्ता का अविनाभूत अंग है। अस्तित्व-वस्तुत्व और अर्थक्रियाकारित्व- ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इतर दार्शनिकों ने जो सर्वथा नित्य, सर्वथा क्षणिक आदि पदार्थ-स्वरूप माने हैं, उनमें 'अर्थक्रिया' नहीं हो पाती, अत: वे 'असत्' सिद्ध होते हैं- इत्यादि गहन चिन्तन जैन दार्शनिकों की अपनी विशेषता व मौलिकता लिए हुए हैं। जैन दार्शनिकों ने क्रिया, परिणाम (भाव) व वर्तना- इनमें कुछ अन्तर किया है; किन्तु अर्थक्रिया के प्रसंग में परिणाम आदि को भी ‘क्रिया' के रूप में स्वीकार किया है। प्रत्येक पदार्थ में निहित ‘अगुरुलघु' गुण व उसके अविभागी गुणांशों में प्रतिसमय होने वाली षड्विध हानि-वृद्धि का निरूपण भी इस 'अर्थक्रिया' के प्रसंग में किया गया है जिसमें जैन दर्शन की मौलिकता स्पष्ट झलकती है। -186

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