Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 154
________________ षट्खण्डागम में नय-सिद्धान्त के प्रयोग - डॉ. अनेकान्तकुमार जैन षट्खण्डागम दिगम्बर जैन-परम्परा का मूल आगम ग्रन्थ है। षट्खण्डागम के रचयिता धरसेनाचार्य के शिष्य आचार्य पुष्पदन्त व भूतबली मुनिराज हैं। इस आगम में छह खण्ड इस प्रकार हैं- 1. 'जीवस्थान'; 2. 'खुद्दाबन्ध'; 3. 'बन्धस्वामित्वविचय'; 4. 'वेदनाखण्ड'; 5. 'वर्गणाखण्ड' और 6. 'महाबन्ध'। इसके चतुर्थ 'वेदनाखण्ड' तथा पञ्चम ‘वर्गणाखण्ड' में नैगम आदि प्रसंगत: विवेचन भी है। विभिन्न विषयों के प्रतिपादन इन्हीं के आधार पर किया गया है। वेदनाखण्ड में वेदना निक्षेप अनुयोगद्वार के अन्तर्गत 'वेदना' शब्द के अनेक अर्थ निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें कहाँ कौन सा अर्थ ग्राह्य है, यह नयों के माध्यम से ही समझाया गया है। इसके लिए ग्रन्थकर्ता ने वेदनाखण्ड में 'वेयणा णय विभाउणा' नाम का द्वितीय अधिकार ही बना दिया। इस प्रकार वेदना तथा वर्गणा को समझाने के लिए नय सिद्धान्त का प्रयोग किया गया है। पूरे मूल शोध-निबन्ध के निष्कर्ष को हम सार रूप में निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं--- (1) कसायपाहुड की तरह षटखण्डागम में भी नैगम आदि प्रसिद्ध सात नयों की परिभाषा तो नहीं है; किन्तु इन नयों के प्रयोगों को जब हम देखते हैं तो स्पष्ट समझ में आता है कि इनके कर्ता का मुख्य भाव वही है जो कि परवर्ती आचार्यों ने नैगमादि नयों की परिभाषा करते समय ग्रहण किया। (2) चार वेदना निक्षेपों का वर्गीकरण करते समय तथा अन्य कर्मस्थलों पर नैगम, व्यवहार तथा संग्रहनय को एक अर्थ में लिया है। (3) ज्ञानावरणादि वेदनाओं का वर्गीकरण करते समय नैगम और व्यवहारनय को एक अर्थ में लिया है। ज्ञानावरणादि कर्मों के वेदना स्वामित्व विधान प्रकरण में शब्दनय और ऋजुसूत्रनय को एक अभिप्राय में लिया है। (5) वर्तमान में नैगमादि नयों की प्रसिद्ध परिभाषाओं की तरफ दृष्टिपात करें तो वे परिभाषायें अपने स्वरूप लक्षणानुसार आपस में पृथक्-पृथक् तो है ही, उनका विषय भी उत्तरोत्तर सूक्ष्म है। (6) इस सन्दर्भ में हो सकता है धरसेनाचार्य की कोई विशेष दृष्टि रही हो। यह खोज का विषय है कि नयों को लेकर उनकी दृष्टि कैसी रही होगी? (7) षटखण्डागम आगम युग का ग्रन्थ है और आगम युग को हम नय का उद्भव तथा विकासशील काल मानते हैं, यही कारण है कि धरसेनाचार्य की नय विषयक विचारणा एक अलग ही रूप लिए हुए है। षट्खण्डागम के कर्ता मनीषी नय का प्रयोग कर रहे हैं, वे इस प्रयोग में नय के नैगमादि भेदों को किन अर्थों में ले रहे हैं? यह अभी भी अनुसन्धान का विषय बना हुआ है। 144

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