Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 168
________________ किन्तु धर्म परिवर्तित लोगों ने अपने जैन रीति-रिवाज को अपनाये रक्खा। उनके आचार वैसे ही बने रहे। तमिल शब्द 'शैवम्' विशुद्ध शाकाहारी के लिए प्रयुक्त होता है और वहाँ के ब्राह्मण शुद्ध शाकाहारी होते हैं जो स्पष्टतया जैनधर्म का प्रभाव है। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के साहित्य भण्डार की अभिवृद्धि में जैनाचार्यों का योगदान प्रथम शती ईस्वी से ही दक्षिण भारत में अनेक प्रकाण्ड विद्वान् और प्रभावक जैन आचार्य हुए जिन्होंने प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं में अध्यात्म, धर्म, दर्शन, न्याय, श्रमणाचार, श्रावकाचार, व्याकरण, छन्द, वैद्यक, पुराण-ग्रन्थ और टीका-ग्रन्थ आदि की रचना करके जैन भारती के भण्डार को धार्मिक एवं लौकिक साहित्य से भरा। ईस्वी सन् की प्रथम सहस्राब्दि में आचार्य कुन्दकुन्द, गुणधर, उमास्वामिन्, स्वामी समन्तभद्र, शिवकोटि, कवि परमेश्वर, सर्वनन्दि, पूज्यपाद देवनन्दि, वज्रनन्दि, पात्रकेसरि, श्रीवर्द्धदेव, भट्ट अकलंकदेव, जटासिंहनन्दि, स्वामी वीरसेन, महाकवि स्वयम्भू, विद्यानन्दि, जिनसेन स्वामी, उग्रादित्याचार्य, महावीराचार्य, शाकटायन पल्यकीर्ति, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम, गुणभद्र, सोमदेव सूरि, महाकवि पुष्पदन्त, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, वीरनन्दि, वादिराज सूरि, वादीभसिंह सूरि, यति मल्लिषेण तथा अमृतचन्द्र सूरि प्रभृति विद्वान् उल्लेखनीय हैं। जैनधर्मानुयायियों द्वारा दक्षिण भारतीय भाषाओं के साहित्य में योगदान दक्षिण भारतीय भाषाओं में तमिल-भाषा सबसे प्राचीन है। इसकी अपनी वर्णमाला, अपनी लिपि, स्वतन्त्र शब्द भण्डार, व्याकरण, उक्ति वैचित्र्य और अभिव्यक्ति की विधा है तथा धार्मिक लौकिक विषयों पर विविध विपुल साहित्य है। ई.पू. द्वितीय-प्रथम शती से तमिल में लिपिबद्ध शिलालेख मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। तमिल-साहित्य की अभिवृद्धि में जैन मुनि संघों के प्रवेश के साथ मानी जाती है। प्राचीनतम उपलब्ध कृति 'तोलकाप्पियम्' पद्य में निबद्ध व्याकरण ग्रन्थ है। इसके कर्ता प्रतिमा योगी तोलकाप्पियर हैं। इसके 'मरबियल' विभाग में जीवों का वर्गीकरण जैन-सिद्धान्त के अनुसार है। गुणवीर पण्डित ने भी 'नेमिनाथम्' नामक एक अन्य व्याकरण रचा। तमिल के 18 नीति ग्रन्थों में 'तिरूक्कुरल', 'नालडियार' और 'पलमोलि' का स्थान सवोपरि है और ये जैन कृतियां मानी जाती हैं। कणिमेदैयार की 'तिणैमालै' और 'एलादि', विलम्बिनाथर की 'नान्माणिक् कडिगै और माक् कारियाशन की 'श्रीपंचमूलम्' भी 18 नीति काव्यों में समाहित जैन कृतियां हैं। तमिल के प्रसिद्ध पञ्च महाकाव्यों में से तीन - 'शिलप्पधिकारम्', 'वलयापति' और 'जीवकचिन्तामणि' तथा पांचों उप काव्य - 'नीलकेशी', 'चूड़ामणि', 'यशोधर काव्यम्', 'उदयणन कदै' और 'नागकुमार काव्यम्' भी जैन कृतियां हैं। उपर्युक्त के अतिरिक्त जैन रचनाकारों ने स्तोत्र, उक्ति संग्रह, छन्द शास्त्र, शब्दकोश, गणित, ज्योतिष आदि पर भी गम्भीर रचनाएं करके और टीकाएं तथा पराण रच कर तमिल-साहित्य की अभिवृद्धि की। द्वितीय शती ईस्वी से प्रचलन प्राप्त कन्नड़-भाषा का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथमकृत 'कविराजमार्ग' है। तदनन्तर दसवीं शती ईस्वी से सत्रहवीं शती ईस्वी तक कन्नड़-भाषा में जैनधर्मानुयायियों द्वारा विविध विषयक विपुल साहित्य की रचना की गयी। इनमें पम्प की रामायण पर्याप्त लोकप्रिय रही है। यूँ तो तेलुगु-भाषा भी 2000 वर्ष प्राचीन है, आरम्भ में संस्कृत और प्राकत को राज्याश्रय प्राप्त रहने -158 -

Loading...

Page Navigation
1 ... 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216