Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 173
________________ दक्षिण भारत के जैनाचार्यों का आयुर्वेद के विकास में योगदान - डॉ. हरिश्चन्द्र जैन, जामनगर जैनधर्म एवं श्रमण-संस्कृति को दक्षिण भारत का जैन विधाओं के अनेक विषयों पर महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जैनाचार्यों का योगदान उनकी विशेषता है। भगवान् ऋषभदेव ने भारतवर्ष में असि मसि कृषी आदि के विकास में योगदान किया है। आदिपुराण में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। इसी प्रकार भारतीय स्वास्थ्य रक्षण में जैनाचार्यों ने अनेक ग्रन्थ लिखकर आयुर्वेद के विकास में अपना योगदान प्रदान किया है। 14 पर्यों में प्राणावाय शास्त्र में अष्टाङ्ग आयुर्वेद का वर्णन उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में जैनाचार्यों ने आयुर्वेद के विकास में अपना योगदान दिया है। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों में पुष्पायुर्वेद, विषतन्त्र एवं रसशास्त्र विषयों का वर्णन है। जैनधर्म अहिंसा प्रधान धर्म है। इस सिद्धान्त की निर्मलता रखने के लिए उन्होंने सर्वत्र अपनी मौलिक विचारधारा के अनुसार ही आयुर्वेद विषय का प्रतिपादन किया है। दक्षिण भारत के जैनाचार्यों ने आयुर्वेद के विकास हेतु संस्कृत एवं कनड़-भाषा में ग्रन्थ रचना की है। जैनाचार्य पूज्यपाद, समन्तभद्र, उग्रादित्याचार्य, आचार्य मंगराज आदि ऐसे जैनाचार्य है, जो बहुश्रुत आचार्य थे। उनका प्रमुख केन्द्र दक्षिण के कारवार जिला होन्नावर तालुका के गैरस के समीप हाडिल्ल में इन्द्रगिरि, चन्द्रगिरि पर्वत 22 था। रामगिरि पर्वत पर भी उनका निवास था। रसशास्त्र, पुष्पायुर्वेद, विषतन्त्र एवं चिकित्सा के क्षेत्र में उन जैनाचार्यों का आयुर्वेद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन जैनाचार्यों को दक्षिण भारत के राजाओं का आश्रय प्राप्त था। दक्षिण भारत के इन प्रमुख जैनाचार्यों का आयुर्वेद के विकास में योगदान प्रतिपादन करना इस शोधपत्र का लक्ष्य है। -163 -

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