Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ जैन-संस्कृति का मुकुट-मणि-कर्णाटक एवं उसकी यशस्विनी कुछ श्राविकाएँ - प्रो. (डॉ.) श्रीमती विद्यावती जैन, नोयडा कर्णाटक प्रदेश भारतीय संस्कृति के लिए युगों-युगों से एक त्रिवेणी-संगम के समान रहा है। भारतीय-भूमण्डल के तीर्थयात्री अपनी तीर्थयात्रा के क्रम में यदि उसकी चरण-रज वन्दन करने के लिए वहाँ न पहुँच सकें, तो उनकी तीर्थयात्रा अधूरी ही मानी जायेगी। जैन-संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास से भी यदि कर्नाटक को निकाल दिया जाय, जो स्थिति बहुत कुछ वैसी ही होगी, जैसे भारत के इतिहास से मगध एवं विदेह को निकाल दिया जाए। यदि दक्षिण के इतिहास से राष्ट्रकूट, गंग, चेर, चोल, पल्लव एवं चालुक्यों को निकाल दिया जाए, तो स्थिति कुछ वैसी ही होगी, जैसे मगध से नन्दों, मौर्यों एवं गुप्तों तथा दिल्ली एवं गोपाचल से चौहानों एवं तोमरवंशी राजाओं के इतिहास को निकाल दिया जाए। दक्षिण-भारत के जैन-इतिहास से यदि पावन-नगरी 'श्रवणबेलगोल' को निकाल दिया जाए, तो उसकी स्थिति भी वैसी ही होगी, जैसी वैशाली, चम्पापुरी, मन्दागिरि, राजगृही, उज्जयिनी, कौशाम्बी एवं हस्तिनापुर को जैन-पुराण-साहित्य से निकाल दिया जाए। जैन इतिहास एवं संस्कृति की एकता, अखण्डता तथा सर्वाङ्गीणता के लिए, कर्नाटक की उक्त सभी आयामों की समान रूप से सहभागिता एवं सहयोग रहता आया है। यही क्यों? भारतीय-इतिहास की निर्माण सामग्री में से यदि कर्नाटक की शिलालेखीय एवं प्रशस्तिमूलक-सामग्री तथा कलाकृतियों को निकाल दिया जाए, तो स्थिति ठीक वैसी ही होगी, जैसे सम्राट अशोक एवं सम्राट खारवेल की शिलालेखीय, पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक-सम्पदा को भारतीय-इतिहास से निकाल दिया जाए। इसी प्रकार, मध्यकालीन भारतीय सामाजिक इतिहास में से यदि कर्नाटक की यशस्विनी श्राविकाओं के इतिहास को उपेक्षित कर दिया जाए, तो भारत का सामाजिक इतिहास निश्चय ही विकलांग हो जाएगा। उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत के बहुआयामी इतिहास के लेखन में कर्नाटक का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है? उसके पूर्व मध्यकालीन राजवंशों ने जहाँ अपनी राष्ट्रवादी एवं जनकल्याणी भावनाओं से अपनी-अपनी राज्य-सीमाओं को सुरक्षित रखा और अपने यहाँ के वातावरण को सुशान्त एवं कलात्मक बनाया, वहीं उन्होंने अपनी संस्कृति, सभ्यता, कला एवं साहित्य के विकास के लिए साधकों, चिन्तकों, लेखकों, कलाकारों एवं शिल्पकारों को, बिना किसी भेद-भाव के, सभी प्रकार की साधन-सुविधाएँ उपलब्ध करायी, उनके लिए विद्यापीठे, अध्ययन-शालाएं एवं ग्रन्थागार स्थापितकर उन्होंने जो भी रचनात्मक कार्य किये, वे भारतीय-परम्परा में आदर्श एवं अनुपम उदाहरण हैं। वहाँ के पुरुष-वर्ग ने जो-जो कार्य किये, वे तो इतिहास के अमिट अध्याय हैं ही, वहाँ की महिलाओं के संरचनात्मक कार्य भी अत्यन्त अनुकरणीय एवं आदर्श-प्रेरक रहे हैं। चाहे साहित्य-लेखन के कार्य हों, पाण्डुलिपि की सुरक्षा एवं प्रतिलिपि-सम्बन्धी कार्य हों, मन्दिर एवं -~-168- ..