Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ जैन दार्शनिक साहित्य के विकास में दक्षिण भारतीय . जैन मनीषियों का योगदान - डॉ. श्रीमती सूरजमुखी जैन, मुजफ्फरनगर भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित समस्त श्रुतज्ञान को गौतम गणधर द्वारा द्वादशांग वाणी के रूप में निबद्ध किया गया। तदनन्तर केवली, श्रुतकेवली तथा अंग और पूर्व के ज्ञाता आचार्यों के द्वारा यह ज्ञान-गंगा सैकड़ों वर्षों तक मौखिक रूप से प्रवाहित होती रही। ईश्वर, जीव, जगत्, द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्वज्ञान, कर्म-सिद्धान्त आदि से सम्बन्धित विचारधारा को परम्परा से प्राप्त कर स्मरण रख लिया जाता था। मगध में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष होने पर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने शिष्य चन्द्रगुप्त तथा अन्य मुनियों के साथ दक्षिण भारत चले गये थे। जो आचार्य, मुनि आदि मगध में रह गये थे, वे परिस्थितिवश शिथिलाचारी हो गये थे। दिगम्बर-परम्परा को अक्षुण्ण रखने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु दक्षिण जाकर श्रुत काप्रचार कर रहे थे। अत: जैन दार्शनिक साहित्य की रचना भी अधिकांश में दक्षिण भारतीय जैन मनीषियों के द्वारा ही हुई है। यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय देते हुए जैन-दर्शन-साहित्य के विकास में उनके योगदान पर विचार किया गया है। 1. दक्षिण भारतीय जैन मनीषियों का परिचय तथा योगदान (1) आचार्य गुणधर / कृति - कषायपाहुड (2) आचार्य धरसेन कृतित्व - आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को पखण्डागम का ज्ञानदान (3-4) आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि कृतित्व - षट्खण्डागम की रचना (5) आचार्य यतिवृषभ कृतित्व - षट्खण्डागम पर चूर्णिसूत्रों और तिलोयपण्णत्ति की रचना। (6) आचार्य वप्पदेव कृतित्व - षट्खण्डागम के महाबन्ध को छोड़कर शेष पांच खण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका -160 -