Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 159
________________ समयसार की दूसरी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन निश्चयरत्नत्रय से परिणत जीव को स्वसमय और निश्चयरत्नत्रय से रहित जीव को परसमय कहते हैं। हाँ, एक बात यह भी हो सकती है कि क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व की देशघाति प्रकृति सम्यक्त्व-प्रकृतिमिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व में चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते रहते हैं; उन दोषों को ही यहाँ 'अज्ञानलव' शब्द से सम्बोधित किया हो, क्योंकि उक्त दोषों का भी लगभग वहीस्वरूप है, जो यहाँ सूक्ष्मपरसमय के प्रतिपादन में व्यक्त किया गया है। अतः एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि यहाँ चल, मल और अगाढ़ दोष वाले क्षयोपशम सम्यग्दृष्टियों को ही 'सूक्ष्मपरसमय' शब्द से सम्बोधित किया गया हो। अरे भाई! यह सब तो सूक्ष्मपरसमय का विवेचन है, मूलरूप से तो यहाँ यही उपयुक्त है कि स्वसमय माने सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा, मुक्तिमार्ग एवं मुक्त तथा परसमय माने मिथ्यादृष्टि संसारी। प्रथम गुणस्थान वाले परसमय हैं और चौथे गुणस्थान से सिद्धदशा तक के जीव स्वसमय हैं। निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि वास्तविक धर्मपरिणत आत्मा ही धर्मात्मा हैं, स्वसमय हैं और धर्म परिणति से विहीन मोह-राग-द्वेष परिणत आत्मा ही अधर्मात्मा हैं, परसमय हैं। स्वसमय उपादेय है, परसमय हेय है, समय ज्ञेय है और समयसार ध्येय है। समयसाररूप ध्येय के ज्ञान,श्रद्धान और ध्यान से ही यह समय स्वसमय बनता है और समयसार के ज्ञान, श्रद्धान एवं ध्यान के अभाव में मोह-रागद्वेषरूप परिणत होकर परसमय बनता है। अतः समयसाररूपशुद्धात्मा को समझकर उसमें अपनापन स्थापित करना, उसका ही ध्यान करना अपना परम कर्तव्य है। अतीन्द्रिय आनन्द अर्थात् सच्चा सुख प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है। -14/

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