Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 163
________________ आचार्य सोमदेवसूरि द्वारा प्रतिपादित अहिंसा - डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर मानव की पदलोलुपता एवं परिग्रहलिप्सा के कारण आज चतुर्दिक् हिंसा का प्रसार बढ़ रहा है। जिन वैज्ञानिक आविष्कारों का उपयोग मानव के कल्याण के लिए होना था, उनका प्रयोग क्रूरतम हिंसा के साधन के रूप में किया जा रहा है। शान्ति के नाम पर अटूट धन-सम्पत्ति खर्च करके नरसंहार जैसी जघन्यतम प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं। आज मनुष्य को मनुष्य के कार्यों से जितना खतरा उत्पन्न हो गया है, उतना खतरा किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं हो सकता है। इस विषम परिस्थिति का इलाज केवल अहिंसा प्रेरित विचारधारा के पास है। यदि सभी देश अहिंसा की अनिवार्यता समझ लें तो कोई कारण नहीं कि विश्व में शान्ति की प्रतिष्ठा न हो। जगत् में हिंसा सबसे बड़ा पाप है और अहिंसा मानवधर्म। वैचारिक प्रदूषण को हटाने के लिए अहिंसा एक सकारात्मक एवं व्यवहार्य समग्र जीवन दर्शन है। जैनशास्त्रों में वर्णित उद्योगी, विरोधी, आरम्भी और संकल्पी चतुर्विध हिंसा में से मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग कर देने पर भी लोक में हाहाकार की स्थिति समाप्त हो सकती है। श्री सोमदेवसूरिकृत ‘यशस्तिलकचम्पू' का उद्देश्य ही अहिंसा की प्रतिष्ठापना रहा है। इसके आठ आश्वासों में से अन्तिम तीन आश्वासों में श्रावकधर्म का विवेचन है, जिनमें सप्तम आश्वास में अहिंसा का उपदेश प्रमुख है। श्री सोमदेवसूरि ने इसका नाम उपासकाध्ययन रखा है। अहिंसा के प्रतिपादन में उन्होंने सिद्धान्तवर्णन के साथ-साथ उसका व्यावहारिक रूप में भी वर्णन किया है। राजा यशोधर एवं उनकी माता चन्द्रमती को आटे के मुर्गा की बलि देने के कारण जब छह जन्मों तक पशुयोनि में भ्रमण करना पड़ा तो साक्षात् हिंसा करने वालों की स्थिति क्या होगी? यह विचारणीय है। लोग स्वार्थसिद्धि हेतु हिंसा के पक्ष में अनेक कुतर्क प्रस्तुत करते हैं। श्री सोमदेवसूरि ने अहिंसा व्रत के आचरण में दृढ़ता के लिए उन कुतर्कों का युक्तियुक्त समाधान किया है। संक्षेप में उन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है - (1) अन्य का घात करने वाले भी सुख भोगते हुए देखे जाते हैं। इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि जो दूसरों का घात न करके सुख का सेवन करता है, वह इस जन्म में भी सुख भोगता है और दूसरे जन्म में भी सुख भोगता है। जो दूसरों के घात के द्वारा सुख भोगने में तत्पर रहता है, वह वर्तमान में सुख भोगते हुए भी दूसरे जन्म में दुःख भोगता है। अत: जिस प्रकार हम सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, उसी तरह दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है। इसलिए हिंसा को छोड़ देना चाहिए।' (2) कुछ लोगों का कहना है कि मूंग, उड़द आदि में और ऊँट, मेढ़ा आदि में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि सबमें जीव रहता है। अत: सभी मांस ही हैं। इस विषय में श्री सोमदेवसूरि का कहना है कि मांस जीव का शरीर होता है, पर सब जीव (अन्न आदि) का शरीर मांस नहीं होता है। ब्राह्मण एवं पक्षी दोनों में जीव है, पर दोनों के मारने में पाप की हीनाधिकता तो है ही। पत्नी और माता दोनों स्त्रियाँ हैं, पर दोनों समान रूप से भोग्या नहीं है। पानी और शराब दोनों पेय हैं पर दोनों का प्रयोग समान नहीं हो सकता है। -153 -

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