Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ श्रवणबेलगोल के अभिलेखः कतिपय जैनाचार्य - डॉ.कपूरचन्द जैन, खतौली आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव। दानतपोजिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।। - (पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 30) आचार्य अमृतचन्द्र ने सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में प्रभावना अंग का स्वरूप बताते हुए उक्त श्लोक में कहा है कि रत्नत्रय के तेज से आत्मसाधना करते हुए, आत्मसाधना के लिए समाज में अनुकूल वातावरण बना रहे इस हेतु दान, तपस्या, जिनपूजा तथा विद्याभ्यास के उत्कर्ष द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। जैनविद्या के प्रचार-प्रसार में लगे पूज्य श्रमणों तथा श्रुताराधक विद्वानों का यह परम कर्त्तव्य है कि भविष्य में आने वाली पीढ़ियां जैनधर्म और संस्कृति का ज्ञान कर स्वपरकल्याण की ओर प्रवृत्त हों, इसके लिए सतत प्रयत्न करते रहे। किसी भी समाज को अपने पूर्वजों के उत्कर्ष, उनकी आत्मसाधना तथा आत्मसाधना के मार्ग का ज्ञान इतिहास के बिना सम्भव नहीं, अत: प्रत्येक व्यक्ति को इतिहासबोध आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य भी है। इतिहास के अनेक स्रोत हमारे सामने हैं। इनमें अभिलेख, मूर्तिलेख, प्रशस्ति, किंवदन्ति, जनश्रुति, साहित्य आदि प्रमुख हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण अभिलेख/शिलालेख हैं, क्योंकि ये पाषाण या धातुद्रव्यों पर उत्कीर्ण पाये जाते हैं। इस कारण एक तो ये जल्दी नष्ट नहीं होते दूसरे इनमें कालान्तर में परिवर्तन और संशोधन की सम्भावना नहीं रहती। साहित्यिक कृतियों में परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन और उनका अपने नाम से न्यूनाधिक उपयोग विख्यात है। अतः किसी भी देश की धर्म-संस्कृति, रहन-सहन, शिक्षा आदि के ज्ञान के लिए अभिलेख साहित्य सर्वाधिक प्रामाणिक आधार हैं। जैन-संस्कृति के लिए यह हर्ष का विषय है कि भारतवर्ष में उपलब्ध अभिलेखों में सर्वप्रथम अभिलेख प्राय: जैन सम्राट् खारवेल का खण्डगिरि-उदयगिरि वाला अभिलेख माना जाना है, जो एक गुफा के छत वाले विशाल पत्थर पर उत्कीर्ण है। इसका प्रारम्भ 'नमो सव्वसिद्धाणं' से हुआ है। अत: इसके जैन होने में कोई सन्देह नहीं है। यह भी गौरव की बात है कि सर्वाधिक अभिलेख जैन व्यक्तियों द्वारा लिखाये गये या जैन तीर्थों आदि पर उपलब्ध हैं। अतिशय गौरव की बात यह भी है कि दक्षिण भारत में अत्यधिक जैन अभिलेख प्राप्त हुए हैं। एक स्थान की अपेक्षा से विचार करें तो श्रवणबेलगोल में ही सर्वाधिक अभिलेख पाये गये हैं। __जैन शिलालेखों के प्रकाशन की बात जब उठी तो सर्वप्रथम प्रथम भाग के रूप में 'जैन शिलालेख संग्रह' नाम से श्रवणबेलगोल के ही शिलालेखों का प्रकाशन हुआ। इसमें लगभग 500 शिलालेखों का प्रकाशन किया गया था। उसके बाद भी सैकड़ों अभिलेखों का संग्रह हुआ है। आज भी यह कार्य जारी है। श्रवणबेलगोल के ये अभिलेख मूर्तियों, मन्दिर-भित्तिकाओं के अतिरिक्त मार्ग के दोनों ओर के शिलाखण्डों पर भी लिखे गये हैं -123 -