Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ उसे अनुभव करे तत्पश्चात् किसी और से उसकी अपेक्षा करे। इस प्रकार भद्रबाहु एक सफल संरक्षक के रूप में स्थापित थे, उन्हें शैथिल्य मञ्जूर नहीं था। 12 वर्षों के दुष्काल में उन्होंने जैन-संस्कृति की रक्षा के लिए सभी जैन मुनियों को दक्षिण की ओर जाने के लिए आह्वान कर प्रेरित किया, यह उनके सुदृढ़ व्यक्तित्व का फल है। वे जैन-संस्कृति के संरक्षण की भव्य मूर्ति थे और अपने को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते थे। कहा भी है आदहिदं कादव्वं जदि सक्कदि परहिदं वि कादव्वं। आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुटु कादव्वं।। __ - (पश्चास्तिकाय की टीका) कोई व्यक्ति कितना भी अनुभवी हो सकता है, विद्वान् हो सकता है, लेकिन वह अगर मात्र दूसरों को उपदेश देता है, दूसरों को प्रेरित करता है, लेकिन खुद उस पर अमल नहीं करता तो उसका ज्ञान व्यर्थ है, कहा भी है - "ज्ञान टन भर भी हो, कन भर अनुभूति की बराबरी नहीं कर सकता।" भद्रबाहु के अन्दर मात्र अनुभूति ही नहीं थी वरन वे जैन-संस्कृति के जगमगाते सितारे थे जो सभी को अपनी ओर आकृष्ट कर उस पथ पर चलने के लिए प्रेरित करते थे जो मार्ग आत्मकल्याण की ओर ले जाता है। यही कारण है कि उनकी शिष्य-परम्परा में एक से एक ज्ञानी व अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को आगे बढ़ाने वाले शिष्य हुए। / भद्रबाहु की जितनी बाह्य क्षमता दिखायी पड़ती है, 1200 साधुओं को इकट्ठा कर दुर्भिक्ष-काल में जैन-संस्कृति को बचाने की उतनी ही आन्तरिक क्षमता भी थी। नहीं तो क्या वजह हो सकती है कि उनकी एक आवाज पर सभी साधु उनके कहे अनुसार दक्षिण की ओर प्रस्थान कर जैन-संस्कृति की रक्षा में संलग्न हो जाते- यहाँ यह नियमसार की गाथा बिल्कुल सही बैठती है - णियभाववणाणित्तिं मए कदं णियमसारणमसुदं। ___ भयंकर दुभिक्ष से पूरे उत्तरापथ के साधुओं को दक्षिण चलने का आह्वान जिसके चलते मुनियों की रक्षा हुई यह श्रुतकेवली भद्रबाहु का किया हुआ सत्प्रयास है। अपने व्यक्तित्व एवं धर्मादर्शों के प्रति कटिबद्धता से उन्होंने सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य एवं चाणक्य जैसे राजपुरुषों को प्रभावित किया, जिससे वे जैनधर्म में दीक्षित हुए और जैन-संस्कृति को राजाश्रय मिल सकने के कारण वह फली-फूली। जब चाणक्य के समान नीति वाला व्यक्ति जो कि नन्दवंश का विनाश कर चन्द्रगुप्त को राज्य दिला सकता है, वह आचार्य भद्रबाहु से दीक्षा ग्रहण करे तो सोचने की बात है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु किस तरह के व्यक्तित्व के मालिक थे। जैन-संस्कृति के संरक्षण के बारे में कैसे सोचते होंगे- किस प्रकार से यह पूरे देश में फैले, क्या प्रयत्न करने चाहिए? इस बारे में वे बहुत गम्भीर रहे होंगे। जैन-संस्कृति के संरक्षण के लिए आवश्यक था कि सभी तत्कालीन साधु आपस में समन्वयात्मक रूप -131