Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ धर्मध्यानतनूत्सर्ग हीयमानादिके सति, संन्यासविधिना दक्षैर्मृत्युः साध्यः शिवाप्तये।। इन्द्रियों की शक्ति मन्द हो जाने पर अतिवृद्धपना एवं उपसर्ग आने पर, व्रतक्षय की सम्भावना होने पर दर्भिक्ष पड ने पर. असाध्य रोग आ जाने पर. शारीरिक बल क्षणहोने पर तथा धर्मध्यान और कायोत्सर्ग करने की शक्ति हीन हो जाने पर सल्लेखना धारण करना चाहिए। सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण होताहै। साधक की दीर्घकालीन साधना का फल समाधिमरण है। दीर्घकाल से व्रताचरण करते हुए भव्य जीव की सफलता समाधिमरण से होती है। श्रुतकेवली भद्रबाहु की समाधि कहाँ हुई इस विषय में अनेक उल्लेख हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भद्रबाहु की समाधि नेपाल की तलहटी में मानी गयी। रत्ननन्दीकृत ‘भद्रबाहुचरित' में उल्लेख है कि जब 12000 साधुओं के साथ भद्रबाहु दक्षिण की ओर विहार करने जा रहे थे तभी कुछ दूरी पर उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। वे वहीं रुकें, उनके साथ अन्तिम मुकुटबद्धदीक्षित चन्द्रगुप्त भी रहे, वहीं समाधिमरण को प्राप्त हुए। चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रुतकेवली भद्रबाहु से दीक्षा ग्रहण की थी। चन्द्रगुप्त का काल भगवान् महावीर के निर्वाण के 155 वर्ष बाद का है और वही भद्रबाहु का समय है। श्वेताम्बर-परम्परासम्मत ग्रन्थों में भद्रबाहु के साथ किसी भी राजा का उल्लेख नहीं है; किन्तु दिगम्बर-परम्परासम्मत ग्रन्थों में भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त का उल्लेख है। कुछ लोगों ने श्रुतकेवली भद्रबाहु के निकटवर्ती नरेश चन्द्रगुप्त मौर्य को पाटलिपुत्र का शासक माना है। भद्रबाहु से दीक्षित चन्द्रगुप्त अवन्तिनरेश हैं, अत: दो चन्द्रगुप्त का उल्लेख मिलता है। . श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर शक् संवत् 572 के आस-पास का शिलालेख है उसमें चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु का उल्लेख है। इससे भी प्राचीन शिलालेख पार्श्वनाथ वस्ति का है जो शक संवत् 522 के आस-पास का है इसमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और निमित्तधर भद्रबाहु की भिन्नता का उल्लेख मिलता है। श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने शिष्य समुदाय के साथ दक्षिण भारत पहुंचे। उन्होंने श्रवणबेलगोल में निवास किया जिससे यह स्थान तीर्थक्षेत्र रूप में प्रख्यात हुआ। यहाँ के चन्द्रगिरि पर्वत पर वह गुफा महत्त्वपूर्ण है जहाँ भद्रबाहु के अन्तिम दिन व्यतीत हुए थे। इसी पहाड़ी पर समाधिमरण हुआ। चन्द्रगुप्त वसति नामक जिन मन्दिर से मण्डित है। श्रुतकेवली भद्रबाहु और मुनिश्री चन्द्रगुप्त की तपस्या और समाधिमरण द्वारा शरीर परित्याग करने से यह चन्द्रगिरि पहाड़ी तीर्थ बनी हुई है। समाधिमरण के लिए पवित्र स्थान के रूप में यह चन्द्रगिरि पहाड़ी प्रसिद्धि को प्राप्त है। यहाँ के सबसे प्राचीन 600 ई. के शिलालेख में इसे कटवप्र या कलवप्पु (समाधिशिखर) तीर्थगिरि एवं ऋषिगिरि ही कहा गया है। इसी शिलालेख में यह भी उल्लेख है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के बाद इस पहाड़ी पर सात सौ मुनियों ने कालान्तर में समाधिमरण किया था। अनेकों चरण चिह्नों से मण्डित यही पहाड़ी श्रुतकेवली भद्रबाहु की समाधिमरण स्थली मानना अधिक युक्तियुक्त है। समाधिमरण आध्यात्मिकता की सर्वोच्च अवस्था है। श्रमण इससे अपनी इष्ट सिद्धि करते हैं। यही कारण है श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी समाधिमरण धारण कर कर्मभार को हलका किया। अपने साधक जीवन के रहस्य को पहचाना और साधना को सफल किया। --136