Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ आचार्य गुणधर और उनका कसायपाहुडसुत्त - डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी विशाल जैन वाङ्मय का अनुयोग पद्धति से विषय के अनुसार विभाजन करने पर इसके चार विभाग किये गये हैं- 1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग, 3. चरणानुयोग और 4. द्रव्यानुयोग। इनमें ‘कसायपाहुडसुत्त' करणानुयोग का एक महान् सिद्धान्त ग्रन्थ है। शौरसेनी प्राकृत-साहित्य का जब हम अध्ययन प्रारम्भ करते है, तब हमारी सर्वप्रथम दृष्टि आचार्य गुणधर रचित 'कसायपाहुडसुत्त' पर जाती है। यह उपलब्ध जैन-साहित्यपरम्परा में कर्म-सिद्धान्त विषय का प्राचीनतम महान् ग्रन्थ है। इसके कर्ता आचार्य गुणधर विक्रम पूर्व की प्रथम शती के आचार्य हैं। इनके व्यक्तित्व के विषय में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। इनकी एकमात्र कृति 'कसायपाहुडसुत्त' तथा इसके टीकाकारों के उल्लेखों के आधार पर ही इनके विषय में कुछ जानकारी प्राप्त होती कसायपाहुड की प्रसिद्ध टीका जयधवला में कहा भी है कि जिनका हृदय प्रवचन वात्सल्य से भरा हुआ है, उन आचार्य गुणधर ने सोलह हजार पद-प्रमाण पेज्जदोस पाहुड के विच्छेद हो जाने के भय से एक सौ अस्सी गाथाओं द्वारा कसायपाहुड की रचना कर इस ग्रन्थ का उपसंहार किया। (गंथवोच्छेद भएण पवयणवच्छलपरवसीकय-हियएण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहस्स पमाणं होतं असीदिसदमेत्त गाहाहि उवधारिदं (जयधवला, भाग 1, पृ. 87) / इस कथन से सिद्ध है कि आचार्य गुणधर ज्ञानप्रवाद नामक पञ्चमपूर्व की दसम वस्तु रूप 'पेज्जदोसपाहुड' के विशेष पारगामी एवं वाचक आचार्य थे। ____ कसायपाहुड की आ. वीरसेनस्वामी रचित जयधवला टीका के अध्ययन से भी आ. गुणधर के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती। वे तो मात्र इतना ही उल्लेख (भाग 1, गाथा 7-8) करते हैं कि जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने आ. गुणधर के मुखकमल से विनिर्गत गाथाओं के सर्व अर्थ को अवधारण किया, वे हमें वर प्रदान करें। जो आर्यमंक्षु के शिष्य हैं और नागहस्ति के अन्तेवासी हैं, वृत्तिसूत्र के कर्ता वे यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें। इस सन्दर्भ में आ. इन्द्रनन्दि के अनुसार आ. गुणधर ने स्वयं नागहस्ति और आर्य मंक्षु के लिए कसायपाहुड की गाथाओं का व्याख्यान किया। इन सबसे यह स्पष्ट है कि आर्य मंक्ष और नागहस्ति समकालीन थे तथा दोनों कसायपाहुड के महानवेत्ता थे। कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्रों के रचयिता आ. यतिवृषभ इन दोनों के शिष्य थे तथा इन्होंने इनसे कसायपाहुड का ज्ञान प्राप्त किया था। जयधवलाकार ने इन दोनों को महावाचक तथा खवण या महाखवण कहा है। इन सब सन्दर्भो से आ. गुणधर और उनकी महान् परम्परा का ज्ञान होता है; किन्तु आ. गुणधर के विषय में अन्यत्र अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है; किन्तु अब उनके द्वारा रचित महान् सिद्धान्त ग्रन्थ “कसायपाहुड' ही उनके विशाल व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचायक है। यहाँ यह भी विशेष उल्लेख्य है कि इस सब अध्ययन से यह भी पता चलता है कि कसायपाहुड तक आगमज्ञान की मौखिक परम्परा ही प्रचलित रही है, जबकि षट्खण्डागम पुस्तकबद्ध किये गये। इसके उल्लेखों से भी स्पष्ट है कि आगमज्ञान को पुस्तकारूढ़ करने का शुभारम्भ षट्खण्डागम से हुआ। --138 -