Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ राज्य करते हुए जब उन्हें पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये तब किसी एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें यथार्थ ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे कि यह दुष्कर्मरूपी बेल अज्ञानरूपी बीज से उत्पन्न हुई है, असंयमरूपी पृथ्वी के द्वारा धारण की हुई है, प्रमादरूपी जल से सींची गयी है, कषाय ही उसकी स्कन्धयष्टि (बड़ी माटी शाखा) है, योग के आलम्बन से बढ़ी हुई है, तिर्यश्च गति के द्वारा फैली हुई है, वृद्धावस्थारूपी फूलों से ढ़की हुई है, अनेक रोग ही इसके पत्ते हैं और दुःखरूपी दुष्टफलों से झुक रही है। मैं इस दुष्कर्मरूपी बेल को शुक्ल ध्यानरूपी तलवार के द्वारा आत्म-कल्याण के लिए जड़ से काटना चाहता हूँ। ऐसा विचार करते ही उनके वैराग्य भावों की प्रशंसा एवं स्तुति करते हुए लौकांतिक देव आ पहुंचे। उन्होंने उनकी पूजा/स्तुति की। विरक्त भगवान् ने अपने अनन्तविजय पुत्र के लिए राज्य दिया और स्वयं सागरदत्त नामक पालकी पर आरूढ़ होकर सहेतुक वन में गये और वहां वेला का नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा लेते ही जिन्हें मनापर्यय ज्ञान प्राप्त हुआ। ऐसे अनन्तनाथ मुनिराज दूसरे दिनचर्या के लिए साकेतपुर में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले विशाख नामक राजा ने उन्हें आहार देकर स्वर्ग तथा मोक्ष की संसूचना देने वाले पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार तपश्चरण करते हए जब छद्यस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत गये तब उसी सहेतुक वन में पीपल वृक्ष के नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सायंकाल के समय रेवती नक्षत्र में उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। उसी समय देवों ने आकर भगवान् के केवलज्ञान की पूजा की। जय आदि पचास गणधरों के द्वारा उनकी दिव्य ध्वनि का विस्तार होता था, वे एक हजार पूर्वधारियों के द्वारा वन्दनीय थे, तीन हजार दो सौ वाद करने वाले मुनियों के स्वामी थे, उन्तालीस हजार पाँच सौ शिक्षक उनके साथ रहते थे, चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, वे पाँच हजार केवलज्ञानियों से सहित थे, आठ हजार विक्रियाऋद्धि के धारकों से विभूषित थे, पाँच हजार मनःपर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे। इस प्रकार सब मिलाकर छयासठ हजार मुनि उनकी सपर्या करते थे। सर्वश्री को आदि लेकर एक लाख आठ हजार आर्यिकाओं का समूह उनके साथ था, दो लाख श्रावक उनकी पूजा करते थे और चार लाख श्राविकाएं उनकी स्तुति करती थी। इस प्रकार बारह सभाओं में विद्यमान वे भगवान् भव्य समूह के अग्रणी थे। अनेक वर्षों तक भगवान् अनन्तजिन ने प्रसिद्ध देशों में विहार कर भव्य जीवों को सन्मार्ग में लगाया। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर उन्होंने विहार करना छोड़ दिया और एक माह का योग निरोध कर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया तथा चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा अघातिया कर्मों का नाश कर मुक्ति का परमपद प्राप्त किया। उसी समय इन्द्रादि देवों के समूह ने आकर बड़े आदर से विधिपूर्वक भगवान् का निर्वाण कल्याणक सम्पन्न किया। परम प्रमोदपूर्वक भक्ति भाव से अन्तिम कल्याणक मानकर वे समस्त इन्द्रादिगण अपने-अपने स्थानों पर चले गये। जो पूर्व तीसरे भव में पद्मरथ नाम के प्रसिद्ध राजा हुए, फिर तप के प्रभाव से अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में अच्युतेन्द्र हुए और फिर वहाँ से चयकर मरण को जीतने वाले अनन्तजिन नामक जिनेन्द्र हुए वे भगवान् अनन्त भवों में होने वाले मरण से हम सबकी रक्षा करे। -46