Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ उनके उपदेश श्रवण को जाते। नेमिनाथ के समय चक्रवर्ती- ब्रह्मदत्त बलभद्र-बलराम, नारायण कृष्ण, प्रतिनारायण- जरासन्ध, नादर ऊधौमुख और कामदेव-वसुदेव और प्रद्युम्न हैं। प्रद्युम्नकुमार ने नेमिनाथ भगवान् के समवशरण में जाकर दीक्षा धारण की। भगवान् नेमिनाथ गिरनार पर मुनि हुए और उनकी छद्मस्थ अवस्था के जब छप्पन दिन व्यतीत हो गये, तब आचार्य गुणभद्र स्वामी बताते है कि वह एक दिन रैवतक (गिरनार) पर्वत पर तेला का नियम लेकर किसी बड़े भारी बांस के वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। निदान वहाँ ही उनको असौज कृष्ण पढ़िवा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय समस्त पदार्थों का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इस समय देवों ने आकर केवलज्ञान का उत्सव मनाया। इन्द्र के समवसरण की रचना की- गिरनार उस देवोपुनीति वैभव को पाकर सदा के लिए अमर हो गया। वह तीर्थ बन गया, क्योंकि उसके निमित्त से लोक को ज्ञाननेत्र मिला था। उसकी शिखर पर समवशरण बड़ा ही सुन्दर शोभता था- वह त्रिलोक भुवनाश्रय जो था। सभी जीव वहाँ वरदत्तादि गजाधिषों के नेतृत्व में अभय और सुखी हुए थे। निस्सन्देह गिरनार अभयधाम बना और आज भी इस पावन रूप को अपने गात में छिपाये हुए है। भगवान् नेमि ने समस्त आर्यलोक की प्रबुद्ध करके गिरनार पर आकर ही योग निरोध किया था। वहीं पर ही श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, शुम्भु और अनिरुद्ध नामक यदुवंशी राजर्षियों ने तप-तपा और सिद्ध पद पाया था, गिरनार के तीन टोंक उनके निर्वाण धाम बने।' पहला कूट भगवान् नेमि का तपोवन रहा एवं पांचवी टूक से मुक्त हुए। गिरनार पर ही नारायण कृष्ण और बलभद्र एवं अनेक यादव नर-नारियों ने भगवान् नेमि से धमोपदेश सुना और अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार व्रत-संयम धारण किये। इस प्रकार ज्ञानाराधना और संयम साधना की पुनीत परम्परा गिरनार का अवलम्ब ले अवतरित हुई। दिगम्बर जैन ऋषियों ने उसे अपना केन्द्रीय सिद्ध साधनास्थली बनाया। उपरान्त श्वेताम्बर जैन भक्तों ने उसकी शिखर पर अपने वैभव को बिखेर कर त्याग भाव का परिचय दिया। उसके मोहक रूप से आकृष्ट हो जैन, हिन्दू और मुसलमान सभी उसकी वन्दना करने आने लगे। -58--