Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ के रूप में जन्म लिया। उसी मिथिलानगरी के श्वेत वन में दीक्षा लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति की। इस प्रकार मिथिलापुरी मल्लिनाथ के चार कल्याणकों से पावन हुई। इन्होंने निर्वाण सम्मेदशिखर तीर्थाधिराज से प्राप्त किया। तीर्थङ्कर मल्लिनाथ के चरित में यह वैशिष्ट्य है कि पूज्याचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भू स्तोत्र में लिखा है कि - यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निानमनन्तं दुरितमधाक्षीत्। तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि।। उक्त श्लोक में मल्लि जिनेन्द्र को जिनसिंह अर्थात् जिनश्रेष्ठ कहा गया है। चौबीस तीर्थङ्करों में वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान ये पाँच तीर्थङ्कर बालब्रह्मचारी होने से अपनी खास प्रधानता रखते हैं। यहाँ समन्तभद्राचार्य ने उन पाँच तीर्थङ्करों में भी तीर्थङ्कर मल्लिनाथ को जिनसिंह कहा है, क्योंकि मल्लिनाथ ही एकमात्र ऐसे तीर्थङ्कर हैं जो मात्र छः दिन छद्मस्थ रहे और केवलज्ञान प्राप्त कर 54,900 वर्ष तक आपने तीर्थङ्कर रूप में भरतक्षेत्र में मंगल विहार किया। तीर्थङ्कर मल्लिनाथ की कुल आयु पचपन हजार वर्ष की थी। इस प्रकार 100 वर्ष के अन्तराल में ही इनके चार कल्याणक हो गये। तीर्थङ्कर मल्लिनाथ की पञ्चकल्याणक भूमियों में मिथिलापुरी नगरी सबसे ज्यादा पवित्र है, क्योंकि चार कल्याणक उसी नगरी में हुए और इसी नगरी में इक्कीसवें तीर्थङ्कर नमिनाथ के भी चार कल्याणक हुए। इस प्रकार आठ कल्याणकों से वह नगरी धन्य हो गयी। मात्र निर्वाण कल्याणक तीर्थाधिराज सम्मेदशिखर जी में हुआ। आलेख में विस्तार से तीर्थङ्कर मल्लिनाथ का जीवन चरित्र की विवेचना की गयी है। -56