Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
View full book text
________________ पालि-साहित्य में उल्लिखित जैनधर्म विषयक प्राचीन सन्दर्भ - प्रोफेसर धर्मचन्द्र जैन, कुरुक्षेत्र भगवान् महावीर और सम्यक् सम्बुद्ध गौतम बुद्ध दोनों ही समकालीन हैं। धर्म के प्रचार-प्रसार का क्षेत्र भी दोनों का प्राय: एक-सा रहा है। जैन साधु हो या उपासक-श्रद्धालु पालि वाङ्मय में उसे 'निगण्ठ' शब्द से सम्बोधित किया गया है। भगवान् महावीर को यहाँ निगण्ठनात (ट) पुत्त कहा गया है जो बुद्ध की दृष्टि में यथार्थ सर्वज्ञ, केवली एवं आप्तपुरुष हैं, भूत, भविष्य एवं वर्तमान के ज्ञाता भी वहीं हैं- 'निगण्ठो आवुसो नातपुत्तो सव्वब्बू सव्वदस्सावी अपरिसेसं आणदस्सनं पटिजानाति-चरतो च तिठ्ठतो च सुतस्स च जागरस्स च सततं समितं आणदस्सनं पच्चुपट्टितं ति।' ___दीघनिकाय के सामञ्जफलसुत्त में बुद्ध और मगधनरेश अजातशत्रु के संवाद के अन्तर्गत आपको छठा तीर्थङ्कर तथा चातुर्यामसंवर का प्रवर्तक बतलाया गया है। वह चातुर्यामसंवर है- सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुतो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो च / एवं खो महाराज, निगण्ठो चातुयामिसंवर संवुतो होति।' ये निगण्ठनातपुत जैनधर्म के अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर हैं। वस्तुत: चातुर्यामसंवर के प्रवर्तक वह नहीं बल्कि आपके पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ थे। जैनागमों में पार्श्वनाथ द्वारा प्रज्ञप्त चातुर्यामसंवर- 'सब्बातो पाणातिवायाओ वेरमणं, सब्बातो मसावायाओ वेरमणं, सब्बातो अदिन्नादाणाओ वेरमणं. सब्बातो बहिद्धा दाणाओ वेरमणं' है। (ठाणांग., सूत्र 266) ____धर्म एवं व्यक्तित्व से प्रभावित होकर एक दूसरे के अनुयायियों का धर्म-परिवर्तन करना स्वाभाविक है जिसके प्रचुर उल्लेख त्रिपिटक में विशेषकर दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय तथा महावस्तु में मिलते हैं। अभय राजकुमार, अचेल कश्यप, सच्चक तार्किक, सीहसेनापति, असिबन्धकपुत्र तथा चित्तगहपति इनमें प्रमुख हैं। सिद्धार्थ गौतम यथार्थवक्ता सम्यक्सम्बुद्ध हैं। बुद्ध की दृष्टि में उचित रीति से चिन्तन-मनन करना, पापकर्म से भय एवं लज्जा का होना, संयमी होना, अल्पाहारी होना, जागरूकता, सहनशीलता, स्मरणशीलता, विशुद्ध आजीविका एवं आन्तरिक आह्लाद प्राणीमात्र के जीवन को समुनत बनाते हैं। बुद्ध ने त्याग (अलोभ), मैत्री (अद्वेष) और प्रज्ञा (अमोह) तथा आत्मप्रत्यवेक्षण पर अधिक बल दिया है। मानव की अशान्ति का कारण हैरूप, शब्द, रस, गन्ध एवं स्पर्श- इन पाँच काम-गुणों के आस्वादन के पीछे उनका दौड़ते रहना।' सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने जिन-जिन धर्मगुरुओं के पास जाकर ज्ञान-ध्यान-योग-साधना की शिक्षा ली उनमें आराडकलाम और उद्दकरामपुत्र प्रमुख हैं। ये दोनों ही जैन निम्रन्थ साधु थे। निर्ग्रन्थ जैन सन्त पिहितास्रव (पार्थापत्य) से प्रब्रजित होकर शाक्य पुत्र गौतम ने बुद्धकीर्ति नाम से कुछ समय तक जैन ध्यान साधना का अभ्यास किया था। जैनधर्म की शिक्षाओं का उन्होंने विधिवत् पालन किया था, जिसका कुछ-कुछ प्रभाव बौद्धधर्म पर स्पष्ट लक्षित होता है। समागत उपर्युक्त सन्दर्भो से निश्चित ही कहा जा सकता है कि बुद्ध निर्ग्रन्थ जैनधर्म से प्रभावित होने के साथ-साथ बुद्ध पूर्व निर्ग्रन्थ-धर्म नाम से जैनधर्म का विद्यमान होना जैनधर्म की प्राचीनता को स्वत: सिद्ध करता है। - -