Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ कह नहीं सकते कि किसी मंगलमय मुहूर्त में, किस शुभ घड़ी में इस अप्रतिम प्रतिमा की स्थापना हुई, जिसके फलस्वरूप आज सहस्रादिक वर्ष बाद भी यह मूर्ति दर्शकों को नित्य नवीनता लिए जीवन्तवत दिखायी देती है। दर्शकों को ऐसा लगता है कि देखते ही रहें, देखते ही रहें। देखते-देखते दर्शकों का मन ही नहीं भरता। मूर्ति के माध्यम से मूर्तिमान का स्मरण आते ही भक्तों की भक्ति-भावना और भी सहस्रगुणी प्रबलहो जाती है। विचार आता है कि “धन्य हैं वे बाहुबली, जिन्होंने अपने अग्रज चक्रवर्ती भरत से तीनों शारीरिक युद्धों में विजय पाकर भी असार संसार का स्वरूप देखकर संसार-शरीर एवं भोगों से विरक्त होकर वैराग्य धारण कर लिया और आत्म साधना में ऐसे जमें कि आहार-विहार की सब सुध-बुध खोकर तत्त्व विचार में जमे ही रहे। स्वरूप में ऐसे रमें कि जब तक केवलज्ञान नहीं हुआ तब तक रमें ही रहे; एक वर्ष तक हिले-डुले ही नहीं। तन पर बेले चढ़ गयी, सांपों ने बांबियाँ बना ली। छिपकुलियाँ और बिच्छु जैसे विषैले प्राणी और डांस-मच्छर शरीर को काटते रहे, फिर भी योगीश्वर बाहुबली तपश्चरण से विचलित नहीं हुए। धन्य थी उनकी वह साधना, आत्मा की आराधना।" यह सब देखकर एवं स्मरण करके भक्तों का हृदय भक्तिभाव से द्रवित हुए बिना नहीं रहता। तीर्थङ्करों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करने की परम्परागत परिपाटी को गौण करके इस अद्भुत, अभूतपूर्व, बहुउद्देशीय, दिगम्बरत्व की दिग्दर्शक उपसर्ग और परिषहजयी योगीश्वर बाहुबली की मूर्ति को सुदूरवर्ती दक्षिण भारत के विन्ध्यगिरि पर्वत पर स्थापित करने के पीछे जिनेन्द्र भक्त सेनाध्यक्ष चामुण्डराय का क्या उद्देश्य और प्रयोजन रहा होगा? यह जिज्ञासा सहज स्वाभाविक ही है। यदि यही जिज्ञासा कोई चामुण्डराय के सामने प्रगट करता तो सर्वप्रथम तो तत्त्ववेत्ता जिनागम के मर्मज्ञ सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नेमीचन्द के शिष्य चामुण्डराय आचार्य अमृतचन्द के कथनानुसार अपनी अकर्तृत्व भावना को ऊर्द्ध रखते हुए यही कहते कि - "भैया! मैंने इसमें क्या किया? मैं तो मात्र विकल्पों का कर्ता हूँ और विकल्प मेरा कर्म है। पर पदार्थ रूप पाषाण में तो जो होने वालाथा, वही हुआ। मैंने तो मात्र अपना विकल्प ही किया है। हाँ, उस मूर्ति के निर्माण में मेरा विकल्प निमित्त अवश्य बना है। इस कारण व्यवहार से मुझे उसका कर्ता कहा गया है। वस्तु में तो जब/जहाँ/जो होना होता है; तब/वहाँ/वही होकर रहता है। उसे इन्द्र और जिनेन्द्र भी टस से मस नहीं कर सकते। उस कार्य के अनुसार सब कारण भी स्वत: मिलते जाते हैं। जैसा कि स्वामी अकलंकदेव ने कहा है तादृशि जायते बुद्धि, व्यवसायोऽपि तादृशः। सहाया तादृशः सन्ति यादृशि भवितव्यता।। अर्थात् जैसी होनहार हो, जैसा भवितव्य हो; तदनुसार विकल्प कर्ता की बुद्धि हो जाती है, पुरुषार्थ (प्रयत्न) या कार्य सम्पन्न होने की विधि भी तदनुसार स्वत: संचालित (सक्रिय) हो जाती है। सहायक कारण के रूप में निमित्त कारण भी वैसे ही स्वत: मिलते जाते हैं। सभी पाँचों समवाय स्वतः अपने आप मिलते जाते हैं और कार्य निष्पन्न हो जाता है। यही बात योगीश्वर बाहुबली की मूर्ति के निर्माण पर घटित होती है। जब जैसा कार्य होने की योग्यता आई, -10