Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti

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Page 128
________________ इस बाहुबली मूर्ति की सुन्दरता अपने आप में अपूर्व ही है। दोनों चरणों के आस-पास में सर्प की वामियां दिखायी गयी जिनके अग्रभाग से सर्प मुख फाड़े हुए देख रहे हैं। ऊपर चलकर लताएं बड़ी ही सुन्दरता से जांघों से निकलकर भुजाओं को वेस्टित कर रही है। मूर्ति के एक तरफ पाषाण में गहरे अक्षरों में खुदा हुआ है "चावंडराजे करवियले, गंगराजे सुताले कर वियले।" यह मराठी-भाषा है। अर्थात् इस मूर्ति का निर्माण चामुण्डराय ने करवाया है और इसके चारों तरफ की प्रदक्षिणा गंगराज ने बनायी है। इस मूर्ति को देखकर देश क्या विदेश के लोग भी भव्य शान्तमुद्रा से प्रभावित होकर अच्छे-अच्छे उद्गार व्यक्त करते रहते हैं। सो ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् बाहुबली ने प्रारम्भ में ध्यानावस्था से क्रूर पशु-पक्षियों को भी परम शान्ति प्राप्त करायी थी। उनके ध्यान के प्रभाव से जात-विरोधी जीव भी जन्मजात वैर को छोड़ कर परस्पर में प्रीति करने लगे थे। यही कारण है कि आज उनकी प्रतिमा के सामने भी जैनेतर लोग दिगम्बरत्व के प्रति द्वेष-भाव को छोड़ कर परम प्रीति को प्राप्त हो जाते हैं। आज जैनों को इसके नग्नत्व का कितना गौरव है सो क्या शब्दों से कहा जा सकता है ? यहाँ तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि भारतवर्ष में आज यही एक मूर्ति ऐसी है कि जो अनेक मूर्ति द्रोही आततायीजनों के दर्भावों को खण्डित कर नग्नता को, दिगम्बरत्व को जीवित रखे हुए हैं और दिगम्बर जैन अनुयायियों का मस्तक सारे विश्व में ऊंचा किये हुए है। ___ गोम्मटेश्वर स्वामी का दर्शन करने वाला प्रत्येक विचारशील व्यक्ति उनकी मौनी मुद्रा से बहुत कुछ सीखकर आता है और इतना अधिक सीखता है कि उनकी वीतरागता की छाप हृदयपटल पर सदा अंकित रहती है। उनके दर्शन से यह बात समझ में आ जाती है कि वीतराग भावों से पूर्ण दिगम्बर मुद्रा सर्वत्र शान्ति तथा निर्विकारता का साम्राज्य उत्पन्न करती है। पूज्यपाद स्वामी के शब्दों में कहना होगा कि वाणी के बिना प्रयोग किये वे आकृति से ही मोक्षमार्ग का उपदेश देते रहते हैं। महामस्तकाभिषेक भगवान् बाहुबली गोम्मटेश्वर की इस 57 फीट ऊंची भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा 13 मार्च सन् 981 में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपस्थिति में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई थी। उस दिन इस दिव्य मूर्ति का पंचामृत से महामस्तकाभिषेक हुआथा। तब से लेकर आज तक प्रत्येक 12 साल के अन्तराल से इस महान् मूर्ति का महामस्तकाभिषेक हो रहा है। द्वितीय महामस्तकाभिषेक सन् 993 में सम्पन्न हुआ था। इस शुभ अवसर पर जैनधर्म की महान् प्रचारिका और दानशीला महिलारत्न अत्तिमाब्बे भी उपस्थित थी। ऐतिहासिक दृष्टि से इसके महामस्तकाभिषकों का वर्णन ई. सन् 1500, 1598, 1612, 1677, 1825 और 1837 ई. के उत्कीर्ण शिलालेखों में मिलता है। इनमें कई मस्तकाभिषेक मैसूर नरेशों और उनके मन्त्रियों ने स्वयं कराये हैं। सन् 1909 में भी मस्तकाभिषेक हुआ था, उसके बाद मार्च 1925 में भी हुआ जिसे मैसूर नरेश महाराज कृष्णराज बहादुर ने अपनी तरफ से करायाथा और अभिषेक के लिए पांच हजार रुपये प्रदान किये थे तथा स्वयं पूजा भी की थी। इसके अनन्तर सन् 1940 में भी गोम्मटेश्वर की इस मूर्ति का महामस्तकाभिषेक हुआ था। उसके पश्चात् 5 मार्च 1953 में महामस्तकाभिषेक किया गया था। उस समय भारत के कोने-कोने से लाखों जैन इस अभिषेक में सम्मिलित हुए थे। -11.8 ~

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