Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ काल पका; तदनुसार चामुण्डराय की बुद्धि उस दिशा में सक्रिय होती गयी और भवितव्यानुसार कार्य सम्पन्न हो गया। यद्यपि सारी दुनिया चामुण्डराय को ही बहुमान देती है। सो उनका कहना भी सही है; क्योंकि वे निमित्त की मुख्यता से ऐसा कहते हैं। लोकव्यवहार में सारा कथन निमित्त की मुख्यता से ही होता है। यहाँ यह जानना भी जरुरी है कि जिससे जगत् पूज्य परमात्मपद प्राप्त करते हैं वह आध्यात्मिकता क्या वस्तु है, जिसकी पृष्ठभूमि में ऐसे मुक्तिरूप वटवृक्ष के बीज विद्यमान होते हैं उसे जानना अति आवश्यक है, अन्यथा हमें उस मार्ग पर चलना सम्भव नहीं हो सकेगा। अत: आध्यात्मिकता की संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तावित है लौकिक दृष्टि से यद्यपि समस्त धार्मिक क्रियाओं को आध्यात्मिक क्रियायें कहने का व्यवहार है, परन्तु आत्मज्ञान के बिना बाह्य धार्मिक क्रियाओं के आध्यात्मिक कहना सार्थक नहीं है। 'आध्यात्मिक' शब्द अध्यात्म का भाव वाचक है और अध्यात्म शब्द अधि+आत्म इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है आत्मज्ञान। यद्यपि यह 'आत्मज्ञान' शब्द कहने-सुनने में सरल लगता है, परन्तु एतदर्थ आत्मद्रव्य का यथार्थ स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक है। यद्यपि 'आध्यात्मिक' शब्द का शाब्दिक अर्थ आत्मा का ज्ञान होता है, परन्तु भरत-बाहुबली की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में 'आध्यात्मिक' शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। यह जैनदर्शन के 'वस्तुस्वातन्त्र्य' के सिद्धान्त का द्योतक है। जैनदर्शन के अनुसार जगत् में जो अनन्त आत्माएँ हैं, वे सभी स्वभाव से सिद्ध परमात्मा की भाँति शुद्ध-मात्र ज्ञातादृष्टा हैं, कारण परमात्मा हैं, पर्याय में पूर्णता प्राप्त करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र एवं स्वावलम्बी हैं, परमुखापेक्षी नहीं हैं। न केवल आत्माएँ, बल्कि पुद्गल का प्रत्येक पुद्गल का परमाणु भी अपने आपमें परमेश्वर है, अपने परिणमन में पूर्ण स्वतन्त्र है। सभी द्रव्य स्वभाव सेध्रुव होते हुए भी अपने-अपने निरन्तर परिणमन करते रहते हैं। इन्हें परिणमाने वाला अन्य कोई नहीं है। सभी द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभावी हैं। अत: एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता नहीं है। ____ इस प्रकार की सच्ची समझ और श्रद्धा वाले व्यक्ति ही आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। इसी श्रद्धा के बल पर भरत और बाहुबली घर में रहते हुए भी गृह विरत थे। __ यद्यपि चारित्र मोह के निमित्त और अपनी वर्तमान पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण राज-काज करने का भाव एवं न्याय-नीत से अपने साम्राज्य की सुरक्षा और बढ़ाने का भाव भी आता था; पर श्रद्धान में कोई कमी नहीं थी, तभी तो आत्म सम्मुखता का पुरुषार्थ जागृत होते ही अपने-अपने स्वकाल में सारे राज-काज के रागात्मक विकल्प शमित हो गये और उनका राग वैराग्य में बदल गया। उस बीजरूप में विद्यमान आध्यात्मिकता अंकुरित हो उठी और दोनों ही भ्राता मुक्तिमार्ग अग्रसर होकर परमात्मा बन गये। हम भी उन्हीं के आदर्शों पर अग्रसर होकर शीघ्र परमात्मा बनें- इस मंगल भावना के साथ विराम। ॐ नमः। - -