Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ 2. वर्ण-व्यवस्था- भगवान् ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र- इन तीन वर्गों की स्थापना की। चक्रवर्ती भरत ने इन तीन में एक और जोड़ते हुए चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। व्रत धारण करके ब्राह्मण व्रती के रूप में स्थापित हुए थे। उनका कार्य संयमपूर्वक अध्ययन-अध्यापन, स्वाध्याय, यजन-याजन निश्चित किया। आदिपुराण में जो वर्ण-व्यवस्था का प्रावधान है वह केवल वृत्ति आजीविका को व्यवस्थिति रूप देने के लिए ही किया गया है। 3. संस्कारों का महत्त्व- जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए सुसंस्कारों का विशेष महत्त्व होता है। भरत ने 53 गर्भान्वय, 48 दीक्षान्वय तथा 7 कर्त्तन्वयक्रियाओं का उपदेश दिया। उन्होंने सात परम स्थानों का भी प्रतिपादन किया था, जो इस प्रकार है- 1. सज्जाति, 2. सद्ग्रीत्व, 3. पारिव्राज्य, 4. सुरेन्द्रता, 5. साम्राज्य, 6. परमार्हन्त्य, 7. परमनिर्वाण। 4. श्रेष्ठ राजा का धर्म- क्षत्रिय का धर्म द्विविध न्याय का पालन करना है। अर्थात् दुष्टों का निग्रह करना और शिष्टों का परिपालन करना। राजा भरत ने सामाजिक स्थिति के लिए केवल प्रजा के विषय में ही योगक्षेम (योग यानि नवीन वस्तओं को प्राप्त करना. क्षेम यानि प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा करना) की चिन्ता नहीं की थी अपित प्रजा की रक्षा करने वाले अन्य राजाओं के विषय में भी उन्होंने योगक्षेम की चिन्ता की। ने राजा के लिए पांच प्रकार के धर्म बताये हैं- 1. कुल का पालन करना, 2. बुद्धि का पालन करना, 3. अपनी रक्षा करना, 4. प्रजा की रक्षा करना। प्रजा दो प्रकार की पायी जाती है- एक वह प्रजा जिसकी रक्षा करनी चाहिए, दूसरी वह जो रक्षा करने में तत्पर है। 5. समञ्जसपना अर्थात् पक्षपातरहित होना। भरत ने राजनैतिक शिक्षा दी कि राजा को अपने राज्य में छोटे से छोटे शत्रु को भी नजरअन्दाज नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भी पीड़ा देने वाला हो सकता है। 5. भरत की समयज्ञता- भरत चक्रवर्ती ने जिस धर्म राज्य की स्थापना की, न्यायपूर्वक राज्य किया, स्वयं और प्रजा की धर्म में अनुरक्त किया, राजा और प्रजा के कर्तव्यों का भान कराया उसका आगामी काल में क्या स्वरूप बनेगा, उसका स्वप्न भी उन्होंने अपने काल में ही ले लिया था। वे भविष्यवक्ता थे। उन्हें अपने स्वप्नों के माध्यम से ज्ञात हो गया था कि भरतक्षेत्र में आगे आने वाले पञ्चमकाल में सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिति का क्या स्वरूप बनेगा? भरत चक्रवर्ती का जीवन आदर्श योगी गृहस्थ का जीवन था। चक्रवर्ती होते हुए भी उन्होंने अहिंसा धर्म की आराधना को सर्वोपरि स्थान दिया। भरतेश्वर पर्व के दिन उपवास करते, मुनियों को आहार देते। उनका चरित्र उन्नत था। उनकी जिनेन्द्र भक्ति अपूर्व थी। उनको अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त हो गया। भगवान् ऋषभ के निर्वाण का प्रभाव भरत के अन्तःकरण में गहरा पड़ा। कालान्तर में उन्होंने अपने मस्तक के श्वेत केश को देखा और उसे भगवान् ऋषभदेव के पास से आये हुए देव के रूप में समझा। उन्होंने अपने पुत्र अर्ककीर्ति को राज्य दया। वे दिगम्बर मनि बने। तत्काल उन्हें मनःपर्यय जान उत्पन्न हआ और अन्तर्महर्त में केवलज्ञानी हो गये भरत चक्रवर्ती का जीवन आज के शासकों के लिए, धनार्जन करने वाले वर्ग के लिए, धार्मिक व्यक्तियों के लिए। एक प्रकाशद्वीप की तरह मार्गदर्शन दे रहा है तथा उनका जीवन जनता को गृहस्थ में रहते हुए भी धर्माचरण करने की प्रेरणा देता है। -86