Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
View full book text
________________ जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराण में प्रतिपादित भरतचक्रवर्ती चरित्र-चित्रण - सुश्री वीणा जैन, लाडनूं आदिपुराण की कथावस्तु के प्रधान नायक आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव और उनके पुत्र शलाकापुरुष भरत चक्रवर्ती हैं। प्रस्तुत लेख में भरत चक्रवर्ती का चरित्र चित्रित करने का प्रयास किया गया है। उनका समस्त जीवन भोग से योग, राग से विराग, आसक्ति से विरक्ति, अहङ्कार से विनम्रता और बन्धन से मुक्ति की ओर क्रान्तिकारी प्रस्थान है। राजा भरत चक्रवर्ती के व्यक्तित्व की भविष्यवाणी उनके जन्म से पहले ही हो चुकी थी जब ऋषभदेव की पत्नी यशस्वती देवी के गर्भ में आये। उनकी माता ने स्वप्न देखे। उनके मन में अद्भुत पराक्रमी बातें उत्पन्न होती थी। महारानी अपने मुख की शोभा दर्पण में न देखकर असि दर्पण में देखा करती थी। रानी के चैत्र कृष्ण नवमी को तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम भरत रखा। जन्म से पूर्व यशस्वती देवी द्वारा देखे गये स्वप्नों से स्पष्ट जाहिर हो रहा था कि 100 पुत्रों में से सबसे बड़ा पुत्र चक्रवर्ती, आत्मबली, दिग्विजयी तथा चरमशरीरी अर्थात् उसी जन्म से मुक्त होने वाला होगा। जन्म से ही भरत एक ओर बाह्य शारीरिक सौन्दर्य, धन, बल, शक्ति, मधुर भाषण, कलाओं में निपुणता के धनी थे तो दूसरी ओर आत्मिक गुणों - सत्य, शौच, क्षमा, त्याग, इन्द्रिय निग्रह, विनय आदि गुणों से सम्पन्न थे। छ: खण्डों में रहने वाले देवों और मनुष्यों के बल से कई गुणा बल केवल चक्रवर्ती भरत की भुजाओं में था। वे एक दिव्य पुरुष थे। भगवान् ऋषभदेव ने अपने निष्क्रमण से पूर्व प्रजा के हितार्थ भरत को अपना उत्तराधिकारी राज्य पद सौंपा और शेष पुत्रों में उचित रूप से पृथ्वी का विभाजन कर दिया। शम, दम आदि गुणों के साथ भरत राज्य कर रहे थे उन्होंने एक बार तीन बातें एक साथ सुनी कि - 1. भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान उत्पन्न हआ है। 2. उनके पुत्र उत्पन्न हुआ है। 3. आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हई है। एक तिराहे पर खडे एक यात्री की भाँति उनके चित्त में द्वन्द्व पैदा हआ कि सर्वप्रथम किसका स्वागत करना चाहिए, किसे प्राथमिकता देनी चाहिए? ये तीनों उपलब्धियां धर्म, काम एवं अर्थ- इन तीन अलग-अलग पुरुषार्थ के फल हैं, जो एक साथ प्राप्त हुए हैं। भरत ने चिन्तन कर समाधान किया कि काम और अर्थ पुरुषार्थ तब तक ही उपयोगी हैं जब तक कि वे धर्म पुरुषार्थ से आप्लावित हैं। ये दोनों भी धर्म की ही निष्पत्ति हैं, इसलिए सबसे पहले धर्म का कार्य करना चाहिए। उन्होंने भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान उत्पनन होने जैसे पावन कार्य को प्रमुखता दी और भरतेश्वर ने भगवान् की पूजा करने का सर्वप्रथम निर्णय लिया। भरत की दिग्विजय ज्ञानकल्याणक महोत्सव मनाने के बाद नई ऊर्जा, उत्साह, प्रेरणा, बल से अयोध्या लौटकर भरत ने लौकिक कार्यों में अपनी शक्ति लगायी। आयुधशाला में जाकर चक्ररत्न की पूजा की उसके पश्चात् पुत्र उत्पन्न होने का उत्सव मनाया। महाराजा भरत अपने भारत देश में एक व्यवस्थित एवं संगठित शासनतन्त्र द्वारा एक अखण्ड भारतीय संस्कृति वाले विराट भारतवर्ष की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे। इस आकांक्षा को मूर्तरूप देने के लिए दिग्विजय के लिए निकले। भरत कूटनीतिज्ञ थे। वे जानते थे कि किन्हें सरलता से अपने मार्ग से -84