Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ तीर्थङ्कर महावीर तथा उनकी पञ्चकल्याणक भूमियाँ __ - डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन, बुरहानपुर जैनधर्म के २४वें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी त्याग, तपस्या एवं अहिंसा के कारण सम्पूर्ण विश्व में अद्वितीय व्यक्तित्व के साथ जन-जन में आदर्श हैं। संसार में उनका व्यक्तित्व अहिंसा और अपरिग्रह के कारण पूज्य एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त है। वे मानो अहिंसा और अपरिग्रह के पर्याय के रूप में संसार में प्रतिष्ठित हैं। कौन ऐसा है कि जो उनके गुणों की अनदेखी कर सके? वे सच्चे अर्थों में विजेता है, क्योंकि उन्होंने किसी और को नहीं जीता बल्कि स्वयं को जीता। वे स्वयंबुद्ध थे और उन्होंने सम्यक् बोधि के लिए 12 वर्ष पर्यन्त तप करके बताया कि हे संसारियो! देखो, बिना प्रयत्न के संसार में कुछ नहीं मिलता और जो पुरुषार्थपूर्वक मिलता है वह केवलज्ञान संसार में अनुपम है, मुक्ति का दाता है। वे निर्भय थे, अभयदाता थे। रागद्वेष से परे। शरीर में रहते हुए भी आत्म अनुरागी, आत्म-चारित्र रूप सम्यक् चारित्र के धनी। निज और पर की आशा से रहित सतत आत्मवैभव को देखते, जानते और उसी रूप प्रवृत्ति करने वाले। वे आत्म में चलते हुए आत्मा को ही जीत गये; ऐसे अनुपम व्यक्तित्व सम्पन्न थे भगवान् महावीर। तीर्थङ्कर महावीर के व्यक्तित्व को आचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्रवचनसार' में कहा है कि एस सुरासुर-मणुसिंद-वंदिदं, घोद घादि-कम्म-मलं। पणमामि वढमाणं, तित्यं धम्मस्स कनारं।।१।१।। अर्थात् घातिया कर्म-रहित, देव-असुर-चक्रवर्तियों द्वारा वन्दित, धर्म-तीर्थ के कर्ता वर्धमान (महावीर) को प्रणाम करता हूँ। मानव समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि वह विवेकी है। वह स्वयं को, मन को, तन को साध सकता है। उसकी साधना सिद्धि के लिए है, स्व-पर कल्याण के लिए है। भगवान् महावीर ने विचार किया और स्वयं की अहिंसा भावना/चारित्र को औरों में पहुँचाने के लिए प्रेरक उपदेश दिया। बिना बोले हुए भी उनका विहार उनके अहिंसक व्यक्तित्व की (गारण्टी) था वे जहाँ से विचरे लोग अहिंसक, निवेर, करुणावान् और अभय होते गये। भगवान् महावीर ने जैसा व्यक्तित्व बनाया वैसा हम आप भी बना सकते हैं; लेकिन शर्त यही है कि "सत्त्वेष मैत्री. गणिष प्रमोदं, क्लिष्टेष जीवेष कृपापरत्वं, माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ" अर्थात् प्राणियों में मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव, कष्ट से घिरे हुए जीवों के प्रति कृपा का भाव और विपरीत वृत्ति वालों के प्रति माध्यस्थ भाव अपनायें। तीर्थङ्कर महावीर की विशेषता उनके सवोदय सिद्धान्त में निहित है। वे व्यक्त्योदय, वर्णोदय, समाजोदय के पक्षधर नहीं थे, वे तो सर्वोदय के पक्षधर थे। तीर्थङ्कर महावीर जन्म से भी महान् थे और कर्म से भी। जन्म से महान् कोई-कोई होता है जैसे तीर्थङ्कर बलभद्र आदि; लेकिन कर्म से महान् सभी बन सकते हैं। जब यह जीव सब में अपने जैसी आत्मा देख लेता है तो न कु-मरण करता है और न किसी को मारता है। भेद तन का हो सकता है,मत का भी हो सकता है लेकिन -73