Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ का जीवनचरित और पञ्चकल्याणक भूमियाँ -डॉ. कस्तूरचन्द 'सुमन', श्रीमहावीरजी प्रामाणिकता को ध्यान में रखते हुए तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ की जीवनचरित-सम्बन्धी सामग्री दिगम्बर जैन-साहित्य में आचार्य श्री यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ती, आचार्य जिनसेनकृत हरिवंशपुराण, आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण और आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण से तथा जैन शिल्प में तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ प्रतिमा की परिचयात्मक जानकारी अहार क्षेत्र के अभिलेख तथा भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय : मध्यप्रदेश- १३वीं शती तक से ली गयी है। हस्तिनापुर का परिचय पावन जैन तीर्थ हस्तिनापुर की गौरव गाथा नामक पुस्तिका में संकलित किया गया है। ___ तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ के मंगल जीवरचरित का शुभारम्भ उनके उस पूर्वभव से किया गया है जिसमें उन्होंने संयम धारण कर तीर्थङ्करत्व की सोलहकारण-भावनाओं का अनुचिन्तन करते हुए तीर्थङ्कर-पुण्य-प्रकृति का बन्ध किया था। उस भव में तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ का जीव पूर्व विदेहक्षेत्र में सुसीमा नगरी का सिंहरथ नामक राजा था। इस पर्याय में सिंहस्थ के जीव ने तीर्थङ्कर-प्रकृति का बन्ध कर समाधिपूर्वक मरण किया था और स्वर्ग के सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ था। गर्भकल्याणक : स्वर्ग में प्रवीचार रहित मानसिक सुख का अनुभव करते हुए स्वर्ग की आयु पूर्ण होने पर सिंहरथ का जीव स्वर्ग से चय कर भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में श्रावण कृष्णा दशमी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में कृतिका नक्षत्र के रहते सोलह स्वप्नपूर्वक हस्तिनापुर के राजा सूरसेन की पटरानी श्रीकान्ता के गर्भ में अवतरित हआ। देवों के आसन कम्पायमान हए। तीर्थङ्कर का गर्भावतरण जानकर सभी देव प्रथिवी पर आये और उन्होंने रत्न वर्षाये तथा गर्भ-कल्याणक-पूजा की और हर्षिक होकर यथास्थान चले गये। जन्मकल्याणक : हस्तिनापुर में रानी श्रीकान्ता के गर्भ में नौ मास रहने के उपरान्त वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन आग्नेय योग में कृतिका नक्षत्र के समय श्रीकान्ता की कुक्षि से सिंहस्थ के जीव ने जन्म लिया। अब वह राजा सूरसेन का पुत्र हुआ। जन्मकल्याणक मनाने देव आये। इन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर नवजात शिशु का अभिषेक किया। तदुपरान्त शिशु का कुन्थु नाम रखकर हर्षित होते हुए देव यथास्थान चले गये। कुमार कुन्थुनाथ की आयु पंचानबे हजार वर्ष की थी। इसमें आयु का चतुर्थ भाग प्रमाण- तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष का समय कुन्थुनाथ का कुमारकाल रहा। इतने ही समय वे मण्डलेश्वर राजा और पुन: इतने समय वे चक्रवर्ती रहे। इस प्रकार आयु के तीन भाग राज-काज में ही निकल गये। शारीरिक अवगाहना पैंतीस धनुष तथा शारीरिक वर्ण तप्त स्वर्ण के समान था। दीक्षाकल्याणक : कुन्थुनाथ परमार्थ के ज्ञानी थे। उन्होंने अपने मन्त्री को समझाते हुए बताया था कि मन्त्री! “जो परिग्रह का त्याग नहीं करता उसी का संसार में भ्रमण होता है।" इस प्रकार परमार्थ ज्ञाता कुन्थुनाथ -4-/