Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ मनाया तथा सुमेरु पर्वत पर ले जाकर 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक किया। वे स्वणा सदृश पीतवर्ण के थे (4/596) / उनकी कुल आयु 84 हजार वर्ष प्रमाण थी (4/588) / उन्होंने 21 हजार वर्ष मण्डलेश अवस्था में एवं 21 हजार वर्ष चक्रवर्ती के रूप में व्यतीत किये (4/609) / उनका चिह्न मत्स्य माना गया है (4/612) 3. तपकल्याणक- चक्रवर्ती के रूप में राज्य सुख भोगते हुए एक दिन अरहनाथ ने मेघ का विनाश देखा जिससे देखते ही इन्हें संसार, शरीर एवं भोगों की क्षणभंगुरता दिखायी देने लगी और उन्हें वैराग्य हो गया (4/616) / उन्होंने मगसिर शुक्ला दशमी के अपराह्न में रेवती नक्षत्र के रहते सहेतुक वन में तृतीय उपवास के साथ जिनेदद्र रूप अर्थात् दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की (4/668) / यह सहेतुक वन हस्तिनापुर के समीप ही स्थित था। उनके साथ 1 हजार राजकुमारों ने दीक्षा ग्रहण की थी (4/676) / मुनि अरहनाथ ने प्रथम पारणा के रूप में गौक्षीर में निष्पन्न अन्न (खीर) की पारणा की थी। इनका छद्मस्थकाल 16 वर्ष माना गया है (4/683) 4. ज्ञानकल्याणक- अरहनाथ तीर्थङ्कर को कार्तिक शुक्ला द्वादशी के अपराह्न में रेवती नक्षत्र के रहते सहेतुक वन में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ (4/703) / केवलज्ञान उत्पन्न होते ही इनका परमौदारिक शरीर पृथ्वी से 5 हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला गया। तीनों लोकों में अतिशय प्रभाव उत्पन्न हुआ सौधर्माधिक इन्द्रों ने आकर भगवान् जिनेन्द्र का ज्ञानकल्याणक मनाया और पूजा-अर्चना की। कुबेर के द्वारा सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से समवशरण की रचना की गयी जिसमें तीर्थङ्कर अरहनाथ ने दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश देकर प्राणीमात्र को आत्मकल्याण का मार्ग बताया। तीर्थङ्कर अरहनाथ का केवलीकाल 20 हजार 984 वर्ष प्रमाण माना गया है (4/965) / इनके प्रमुख गणधर का नाम कुम्भ (कुन्थु) (4/974) / इनके गणधरों की संख्या 30 थी। 5. मोक्षकल्याणक- तीर्थङ्कर अरहनाथ भगवान् ने चैत्र कृष्णा अमावस्या को प्रत्यूष काल में अपने जन्म (रोहिणी) नक्षत्र के रहते 1 हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया चेत्तस्स बहुल-चरिमे, दिणम्मि णिय जम्मि-मम्मि पज्जूसे। सम्मेदे अर - देओ, सहस्स - सहिदो गदो मोक्खं।। 4/1213 / / ___ यह सम्मेदशिखर वर्तमान भारतवर्ष के झारखण्ड राज्य में गिरिडीह जिलान्तर्गत स्थित है। जहाँ आज भी जैनधर्मानुयायी बड़ी श्रद्धा से जाकर भगवान् अरहनाथ के निर्वाणस्थली का चरण वन्दन करते है। सम्पूर्ण जैन साहित्यकारों ने तिलोयपण्णत्ती का अनुसरण करते हुए तीर्थङ्कर अरहनाथ के गर्भ, जन्म, तप एवं ज्ञानकल्याणक का क्षेत्र हस्तिनापुर एवं निर्वाण कल्याणक का क्षेत्र सम्मेदशिखर को माना है। हस्तिनापुर एवं सम्मेदशिखर आज प्रमुख तीर्थों के रूप में मान्य हैं। जहाँ सम्मेदशिखर में अरहनाथ तीर्थङ्कर के मोक्षस्थल को सुप्रभकूट के रूप में चिह्नि किया गया है वहीं हस्तिनापुर में उनके चार कल्याणकों के स्थान चिह्नित नहीं हैं। _____ तीर्थङ्करों में से कुछ तीर्थङ्करों को छोड़कर अन्य का विस्तृत परिचय नहीं मिलता है। फिर भी सिहौनियां (१०वीं शताब्दी), बजरंगगढ़ (१२वीं शताब्दी), पजनारी, पपौरा, थूवौन, चन्देरी, हस्तिनापुर, मदनपुर (१०वीं शताब्दी) आदि स्थानों पर भगवान् अरहनाथ की जो प्रतिमाएं अवस्थित हैं वे अपने आपमें अद्भुत, कलात्मक -53