Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ शीतलनाथ ने तत्काल अपने पुत्र को राज्यभार सौंप दिया। 'शुक्रप्रभा' नाम की पालकी पर सवार होकर नगर के बाहर 'सहेतुक' वन में पहुँचे जो कि वर्तमान में झारखण्ड में हजारीबाग जिले में 'भोंदलगांव' 'भद्रिलापुर' (ति.प.) (ज.ध.प्रा.इ., पृ. 139) के नाम से जाना जाता है। माघ कृष्णा द्वादशी के दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में दो उपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। देवों ने आकर तपकल्याणक की पूजा की। जिस वृक्ष के नीचे बैठकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण की उस दीक्षा वृक्ष का नाम 'तेंदु' है। 4. ज्ञानकल्याणक- कैवल्यप्राप्ति दुद्धेर तपश्चरण एवं संयम साधना करते हुए महामुनि शीतलनाथ स्वामी ने विहार करते हुए उपवास के बाद आहार लेने की इच्छा से अरिष्ट नामक नगर में गये। राजा पुनर्वसु ने बड़ी प्रसन्नता से नवधा भक्तिपूर्वक उन्हें आहार दिया। तपश्चरण करते हुए उन्होंने अल्पज्ञ अवस्था में तीन वर्ष बिताये। तभी पौषकृष्णा चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में उन्हें सहेतुक पर्वत पर भगवान् को दिव्य आलोक कैवल्य- केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। जहाँ भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्त हुई वर्तमानमें वह 'कोल्हुआ पर्वत' हजारीबाग जिले की चतरा तहसील में है। यहाँ के लिए डोभी से या चतरा से सड़क जाती है। भोंदलगांव कोल्हुआ पहाड़ से पांच-छ: मील है। 5. मोक्षकल्याणक तीर्थङ्कर शीतलनाथ चिरकाल तक देशों में विहार करके भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग बताते रहे। उनकी सभा में सप्त ऋद्धियों को धारण करने वाले अनगार आदि इक्यासी गणधर थे। चौदह पूर्वधारी थे, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक थे, सात हजार दो सौ अवधि ज्ञानी थे, सात हजार केवलज्ञानी थे, बारह हजार विक्रिया ऋद्धि ऋद्धि के धारक मुनि उनकी पूजा करते थे, सात हजार पांच सौ मनःपर्ययज्ञानी उनके चरणों की पूजा करते थे। इस तरह सब मुनियों की संख्या एक लाख थी। धरणा आदि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ उनके साथ थी, दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ उनकी अर्चा तथा स्तुति करती थी। (उ.पु., पर्व 56, पृ. 176, श्लोक 48,49,50) जीवों को कल्याण का उपदेश देते हुए अन्त में शाश्वत निर्वाण-भूमि सम्मेदशिखर जा पहुँचे और वहाँ एक माह का योग-निरोध करके उन्होंने प्रतिमा योग धारण कर लिया और अश्विन शुक्ला अष्टमी को सायंकाल के समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में समस्त कर्मों का नाश करके एक हजार मुनियों के साथ विद्युतप्रभकूट श्री सम्मेदशिखर जी से परमपद निर्वाण की प्राप्ति हुई। देवों ने आकर उनके निर्वाण कल्याणक की पूजा की। इस प्रकार तीर्थङ्कर शीतलनाथ का जीवन चरित हमारे जीवन में शीतलता और शान्ति प्रदान करता है उसी तरह उनके उपदेश और उनकी पञ्चकल्याणक तीर्थभूमियाँ हमारा मोक्षमार्ग प्रशस्त करती है। -3-1