Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ आदिपुराण में वर्णित भगवान् ऋषभदेव - डॉ. मुमुक्षु शान्ता जैन, लाडनूं कला, साहित्य, धर्म, संस्कृति और सभ्यता के अनूठे महाग्रन्थ आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने भगवान् ऋषभ का चरित्र-चित्रण किया है, उसे पढ़कर लगता है कि आदिपुराण उनके जीवन के ऊर्ध्वारोहण की गाथा है। ऋषभ के जीवन का आदि, मध्य और अन्तिम पड़ाव सृजन, निर्माण, विकास, सुरक्षा और समृद्धि का जीवन्त प्रमाण है। उनका जीया गया हर सोच और भाव आज जीवन का दर्शन बन चुका है। उनका चिन्तन, निर्णय और क्रियान्विति से निष्पन्न उपलब्धियां उत्पाद, व्यय और ध्रुव के शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति हैं। उन्होंने जो कुछ कहा, वह हेय-ज्ञेय-उपादेय का समीक्षात्मक प्रशिक्षण है। भगवान् ऋषभदेव पुरुषार्थ चतुष्टयी के पुरोधा थे। अर्थ और काम को संसार की अनिवार्यता मानी तो धर्म और मोक्ष को जीवनका चरम लक्ष्य तक पहुँचाने वाला सही रास्ता बतलाया। वे प्रयोगधर्मा ऋषिपुरुष थे। उन्होंने जीने की शैली सिखलायी। बिखराव को व्यवस्था दी। उन्होंने दण्डनीति और न्यायनीति का बोध देकर जनता को अपराधों से बचाया। भोग से त्याग की ओर जाने वाले राजपथ का निर्माण किया। प्राप्त संसाधनों की आवश्यकता और उपयोगिता का विवेक बोध जगाया। स्व और पर की समीक्षा करते हुए मनुष्य को अपने कर्त्तव्य के निर्वहन में दायित्व की प्रेरणा दी। गृहस्थ जीवन में भी रहते हुए अनासक्त बनकर जीने की शैली दी। व्यष्टि और समष्टि के समन्वित विकास की सर्जना सिखलाई। ऋषभ प्रथम संस्कृति के निर्माता, निर्णायक और नियामक बने। भगवान् ऋषभ इस अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थङ्करों में आद्य तीर्थङ्कर थे। उनका जन्म अवसर्पिणी के तीसरे काल के अन्त में उस समय हुआ जब भोगभूमि की व्यवस्था एवं प्रभावकता नष्ट होने लगी थी और कर्मभूमि नयी रचना के इन्तजार में थी। एक ओर साधन-सुविधाओं में कमी आने लगी तो दूसरी ओर जनसंख्या और जीवन की आवश्यकताओं में वृद्धि होने लगी। भगवान् ऋषभदेव का जन्म अयोध्या के अन्तिम मनु कुलकर राजा नाभि के घर उनकी पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से हुआ। जब वे गर्भ में आए तो माँ मरूदेवी ने 16 श्रेष्ठ स्वप्न देखें। महारानी ने राजा नाभिराज के पास जाकर स्वप्न दर्शन की बात कही और राजा ने स्वप्न के फलों की मीमांसा करते हुए कहा- तुम्हारे गर्भ में एक महान आत्मा का अवतरण हआ है। जब वे जनमें, वह शभ दिन था चैत्र कृष्णा नवमी का। शभ मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धनराशि का चन्द्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र। भावी तीर्थङ्कर का जन्मोत्सव मनाने स्वयं सौधर्म इन्द्र अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ मेरू पर्वत पर बालक ऋषभ को ले जाकर उनका अभिषेक किया। इन्द्र द्वारा की गयी स्तुति ऋषभ के जीवन की भविष्यवाणी थी। यद्यपि जन्म से कोई गुणसम्पन्न नहीं होता, उम्र के साथ ज्ञान और अनुभव बढ़ता है, पर ऋषभ तीन ज्ञान के धनी थे, इन्द्र ने सहस्राक्षी बनकर प्रज्ञा से उनका भावी स्वरूप देखा और अपूर्व स्तुति की। इन्द्र स्तुति में ऋषभ की तेजस्विता, वर्चस्विता, मनस्विता, तपस्विता, यशस्विता का सुन्दर वर्णन है।