Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ ऋषभ के मन में जागते वैराग्य के साथ संसार की नश्वरताका जो बोध हुआ उसे आदिपुराण नामक इस महाकाव्य में विस्तार से दिया गया है। यह वैराग्य बोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया का निदर्शन है। सत्य की खोज में ज्योही ऋषभदेव का कदम उठा कि इन्द्र ने लौकान्तिक देव को ब्रह्मलोक से उतारा। जिन्होंने ऋषभदेव का तप कल्याणक महोत्सव मनाया। ऋषभ का मन सन्यस्त हो चका था। उन्होंने अपना दायित्व. अधिकार. वैभव. सत्ता सभी कुछ भरत को सौंपकर, बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित किया। एक ओर राज्याभिषेक, दूसरी ओर निष्क्रमण-कर्त्तव्य और दायित्व की सीमाओं का बोध करा रहा था। उन्होंने पदार्थवाद की स्थापना के बाद अब आत्मवाद की बुनियाद रखी। संग्रह के साथ त्याग की परम्परा स्थापित की। . ऋषभदेव ने वहाँ उपस्थित सभी को जीवन को सम्बोध दिया। सबसे मौखिक एक बार फिर आज्ञा प्राप्तकर सिद्धों की साक्षी से वे पूर्णत: अपरिग्रही और निम्रन्थ बन गये। तदनन्तर पूर्वाभिमुख होकरपद्मासन में बैठकर सिद्ध परमेष्ठि को नमस्कार करके उन्होंने पञ्चमुष्टियों में केश लुंचन किया। मोहनीय कर्म की मुख्य लताओं के समान बहुत सी केशरूपी लताओं को लोंचकर दिगम्बरत्व को धारण कर लिया। इन्द्र ने भगवान् के केशों को क्षीरसमन्दर में विसर्जित कर दिया। कवि कहते है कि महापुरुषों के आश्रय से मलिन व्यक्ति भी पूज्यता को प्राप्त कर लेता है। दीक्षा ग्रहण करते ही भाव विशुद्धि के साथ भगवान् ऋषभदेव को मनःपर्ययज्ञान उपलब्ध हो गया। __ संयम ग्रहण के साथ मुनिराज ऋषभदेव ने घोर तप का संकल्प कर लिया। अनगिनत बाधाएं आईं पर फौलादी मन कभी न रुका, न झुका, न थका और न कहीं थमा। उन्होंने निर्जन शून्यवनों में, एकान्त गिरिकन्दराओं में, भयावह श्मशानों में गगनचुम्बी पवर्तमालाओं में तप तपा। भगवान् ने जब दीक्षा स्वीकार की उस समय बिना संयम का अभिप्राय जाने चार हजार राजाओं ने एक साथ दीक्षा स्वीकार की। कुछ स्नेह से, कुछ भय से, कुछ मोह से संयमी बने। पर भगवान् की कठोर तपस्या देखकर बहुत से मुनि डर से, कुछ असहिष्णुता से, कुछ अज्ञान से और कुछ अनजाने में घर लौट गये। कुछ मुनि उनका साथ नहीं निभा पाये। पुण्योदय से एक दिन हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के लघुभ्राता महाराजा श्रेयांस को प्रथम दानदाता बनने का सौभाग्य मिला। मुनिराज ऋषभदेव को नवधाभक्ति के साथ उन्होंने इक्षुरस का आहार दान देकर पारण सम्पन्न कराया। महाराजा श्रेयांस इस युग का प्रथम आहार दाता बने और व्रतदान की परम्परा शुरु की। उसी समय आकाश से देवताओं द्वारा धन्य यह दान, धन्य यह पात्र,धन्य यह दाता की ध्वनि होने लगी और यह शुभ दिन अक्षय तृतीया के नाम से विश्रुत हो गया। ऋषभ साधना करते हुए अयोध्या महानगर के उपनगर पुरिमताल में पधारे जहाँ शकटागुरु नाम का रमणीय उद्यान था, वहाँ चैत्यवृक्ष की छाया में भगवान् ऋषभदेव ध्यान लीन हो गये। शुद्ध भाव लेश्या के साथ समस्त आवारक, विकारक, अवरोधक कर्मों का विलय हुआ। निरावरण ज्ञान, अव्यावाध सुख, अप्रतिहित शक्ति का स्रोत खुल गया और ऋषभदेव को फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ की समवसरण में पहली बार देशना देने के लिए दिव्यध्वनि व्यक्त हुई। समवशरण में उपस्थित चक्रवर्ती राजा भरतसहित अनेकों भव्य जीव प्रवचन सुनकर प्रतिबुद्ध हुए, व्रती बने, महाव्रती बने -25