Book Title: Jain Vidya Ke Vividh Aayam
Author(s): Fulchandra Jain
Publisher: Gommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
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________________ चतुर्थ तीर्थङ्कर अभिनन्दन एवं उनकी पञ्च-कल्याणक भूमियाँ - डॉ. कृष्णा जैन, ग्वालियर अनादिकाल से मानव मानवता की प्रतिष्ठा के लिए धर्म-दर्शन का प्रयोग करता आ रहा है। इस विश्व में धर्म-दर्शन का स्वरूप निर्धारण करने के लिए वीतराग नेता या तीर्थङ्कर जन्म ग्रहण करते हैं। व्यक्ति की सत्ता, स्वाधीनता और सह-अस्तित्व की भावना का प्रवर्तन तीर्थङ्करों द्वारा ही होता है। सहिष्णुता, उदारता और धैर्य के सन्तुलन के साथ वैज्ञानिक सत्यान्वेषण की परम्परा का प्रादुर्भाव भी तीर्थङ्करों द्वारा ही सम्भव है। वर्तमान कल्पकाल में चौबीस तीर्थकर हुए हैं जिनमें अभिनन्दननाथ चतुर्थ तीर्थङ्कर हैं। तिलोयपण्णत्ति के तृतीय महाधिकार में मंगलाचरण रूप में भगवान् अभिनन्दन नाथ का स्तवन करते हुए आचार्य यतिवृषभ लिखते हैं - भव्य जण-मोक्ख जणणं, मुणिंद-देविंद पणद पय कमलं। णमिय - अहिणंदणेसं, भावण लोयं परूवेमि।। अर्थात् भव्य जीवों को मोक्ष प्रदान करने वाले तथा मुनीन्द्र (गणधर) एवं देवेन्द्रों के द्वारा वन्दनीय आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने अभिनन्दननाथ की पूर्व की दो पर्यायों का वर्णन किया है। राजा महाबल एवं अहमिन्द्र। यों तो यह जीव अनादिकाल से संसार परिभ्रमण करता चला आ रहा है। इसकी उन असंख्यात पर्याय जन्मों का कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि जिन पर्याय या जन्मों में इसने अपनी आत्मशक्ति के विकास का कोई प्रयास नहीं किया। पर्याय या जन्म वही महत्त्वपूर्ण होता है जिसमें व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने के लिए संकल्प या साधना आरम्भ करता है। तीर्थङ्कर अभिनन्दन के अगणित और संख्यातीत जन्मों में राजा महाबल की पर्याय का सबसे अधिक महत्त्व और मूल्य है, क्योंकि इसी जीवन में उन्हें तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध हुआ। उसके बाद विजय नामक विमान में अहमिन्द्र के रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से चय कर अयोध्या नगरी के राजा स्वयंवर एवं रानी सिद्धार्थ के गर्भ से अभिनन्दननाथ के नाम से जन्म लिया। तीर्थङ्कर सम्भवनाथ के मोक्षगमन के दस लाख करोड़ सागरोपम के पश्चात् अभिनन्दननाथ का जन्म हुआ। जन्म से ही आप सम्यग्दृष्टि एवं तीन ज्ञान से युक्त थे। 50 लाख पूर्व आपकी आयु थी। 350 धनुष ऊँचा शरीर था। 'बन्दर' उनका चरणचिह्न था। आपकी शोभा लोकोत्तर थी। कुमारावस्था, राज्यावस्था, अथवा संयमदशा अवस्थाओं में वे एक समान धीर-वीर. गम्भीर और शरवीर थे। संसार के एक श्रेष्ठ राजा के रूप में लगभग 37 लाख पूर्व तक उन्होंने भली-भाँति राज्य किया। आयु के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व बीत जाने पर एक दिन मेघों की शोभा में बना हुआ महल देखते-देखते विघट गया उसी से उन्हें वैराग्य हो गया और दीक्षा धारण कर केवलज्ञान प्राप्त किया। -27.