Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 12
________________ जनशासन ऐसी ही गंभीर चिन्तनामें समुज्वल दार्शनिक विचारोंका उदय होता है । पश्चिमके तर्कशास्त्री प्लेटो महाशय कहते हैं-Philosophy begins in wonder-दर्शन-शास्त्रका जन्म आश्चर्य में होता है । इसका भाव यह है कि जब विचित्र घटना-चक्रमे जीवनपर विशेष प्रकारका आघात होता है, तब तात्विकताके विचार अपने आप उत्पन्न होने लगते हैं। गौतमकी आत्मा में यदि रोगी, वृद्ध तथा मृत व्यक्तियों के प्रत्यक्ष दर्शनसे आश्चर्य की अनुभूति न हुई होती तो वह अपनी प्रिय यशोधरा और राज्यले पूर्णतया निर्मम हो बुद्धत्वके लिए सावनापथपर पैर नहीं रखते। वास्तविक शान्तिकी प्यास जिम आत्मामें उत्पन होती है, वह सोचता है"मैं कौन है; में कहाँसे भाया; मेरा क्या स्वभाव है, मेरे जीवनका ध्येय क्या है, उसकी पूर्तिका जपाव वया है ?" पश्चिमी पण्डित ऐकल (Hackel) महाशय कहते हैं-"Whence do we come ? What are we ? Whither do we go?" से प्रश्नों का समाधान कर जश रात्पुरुषने सवारपसापूर्वक प्रयत्न किया वही महापुरुषोंमें गिना जाने लगा और उस महापुरुषने जिस मार्गको पकता वही भोले तथा भूले भाइयों के लिए कल्याणका मार्ग समझा जाने लगा-'महाजनो येन गतः स पन्थाः ।। भाजके उदार जगत्से निकट सम्बन्ध रखनेवाला व्यक्ति सभी मार्गोको आनन्दका पथ जान उसकी आराधना करने का सुझाव सब के समक्ष उपस्थित करता है । वह सोचता है कि शान्त तथा लोक-हितकी दृष्टिवाले व्यक्तियोंने जो भी कहा वह जीवन में आचरणयोग्य है । तस्व के अन्तस्सलको स्पर्श न करनेवाले ऐसे व्यक्ति 'रामाप स्वस्ति' के साथ-हो-साथ 'रावणाय स्वस्ति' कहने में संकोच नहीं करते । ऐसे भाइयोंको तर्कशास्त्रके द्वारा इतना तो सोचना चाहिए कि सद्भावना आदिके होते हुए भी सम्यक् ज्ञानको ज्योति के बिना सन्मार्गका दर्शन तथा प्रदर्शन कैसे सम्भव होगा । इसलिए अज्ञानता अथवा मोहकी प्रेरणासे तत्त्वज्ञोंको रावणको अभिवन्दना छोड़कर रामका पदानुसरण करना चाहिए । जीबन में शाश्वत तथा यथार्थ शान्तिको लानेके लिए यह आवश्यक है कि कूपमण्डूकवृत्ति अथवा मतानुगरिकता की अज्ञ-प्रवृत्तिका परित्याग कर विवेककी कसौटीपर सत्त्वको कसकर अपने जीवनको उस ओर झुकाया जावे । १. "कोऽहं कोदग्गुणः मयत्यः किं प्राप्यः किनिमित्तकः ।" -वादीमसिंह सूरिकृत सत्रचूडामणि १-७८ । २. "तातस्य कूपोऽयमिति बुवाणाः क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति ।"

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