________________
रेवंतगिरिरासु - एक परिचय
प्रो. डॉ. रूपा चावडा उमा आर्ट्स एण्ड नाथीबा कोमर्स महिला कोलेज,
गांधीनगर, गुजरात
अपभ्रंशसे उद्भव हुई, अन्य भाषाओंके आरंभ काल में रचित काव्यकृतियां रास हैं। जैन धर्म के प्रचार हेतु लिखी गई रास कृतियो में केन्द्रस्थान पर धर्म और समाज रहा है। मुस्लिम शासनकाल में धर्म, साहित्य के ध्वंस समयमें लोकरुचिके अनुकूल लोकभाषा में, धर्माव बोध हेतु, पूर्व साहित्य से कथानक लेकर रास काव्यों की रचना हुई है। मध्यकाल में जैनरास काव्यों की एक विशिष्ट भूमिका रही।
उत्तरगौर्जर अपभ्रंश भाषा-भूमिका में प्राप्त रास गेय है। श्री मं. मजमुदार कहते है - ‘प्राचीन गुजराती में रास लिखे गये उससे पूर्व अपभ्रंश में उपदेशात्मक पद्य-प्रबंध थे, जो रास नाम से जाने जाते थे। ये प्राचीन संधिकाव्य भी गेय रहे होंगे।' कडवकबद्ध गेय कविता प्रचारमें आने से रेवंतगिरिरासु जैसे रासका सर्जन होने लगा।'
ई. स. १२३२ में रचित रेवंतगिरिरासु में - रंगिहि ए रमइ जो रासु ...... (४/२०)
इस प्रकार रास रंगपूर्वक खेले जानेकी, समूह में गाने की काव्यविद्या के रूप में दिखाई देता है। (उत्सवों के समय जैन मंदिरो में ये रास गाये व खेले जाते थे।)
रेवंतगिरिरास के चारो कडवक गेय गीतोमें रचित व नृत्यमें स्पष्ट रूपसे प्रयुक्त थे। इस प्रकारकी रचनाओं के मूलमें नृत्यप्रकार है। - ('एक से अधिक नर्तकों द्वारा प्रयोजित तालबद्ध ६४ युगल द्वारा प्रस्तुत नृत्य को रास कहा जाता है।')
आरंभ में ताल, अंगचेष्टाओं के साथ गान रहता था, पश्चात् वह गेय रूप में ही रहा।
ऐतिहासिक मूल्य से युक्त रेवंतगिरिरासु की रचना काव्य के अंत में निर्देश किये अनुसार वस्तुपाल-तेजपालके समकालीन विजयसेनसूरिने की है - रंगिहि ए रमइ जो रासु, सिरिविजयसेणि सूरि निम्मविर ए।
रेवंतगिरिरासु - एक परिचय * 509