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लिये शुद्धबन्धो में विशेष जोड हुये है ।...' गुजराती कविता के विकास में एक विशिष्ट प्रकार की काव्यबन्ध पद्धति की दृष्टिसे इस काव्य की उपयोगिता सविशेष दिखाई देती है । १९
गुजराती भाषाकी आरंभकालीन कृति होने से प्राचीन गुजराती का विकासक्रम जानने के लिये प्राचीन गुजराती के उदाहरणरूप होने से इस कृति का विशेष मूल्य है।
इस समय रचे गये साहित्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव है । अपभ्रंश नई नई जमीने गोडती गई, तत्पश्चात् प्राचीन गुजराती आदि भाषायें अपने मूल प्राचीन रूपको पाने लगी । इस प्राचीन गुजराती या गौर्जर अपभ्रंशसे रासादि कृतियाँ रची गई। अपभ्रंश भूमिका के प्रयोग विशेष होने पर भी भाषा गुजराती मानी गई है।
श्री सी. डी. दलाल रेवंतगिरिरासु को प्राचीन गुजराती काव्य कहते है । २° उनके अनुसार प्रस्तुत रासकी नकल १४वें शतक के आरंभ में मिलती है, अतः भाषा भी नि:संदेहे मूल ही सुरक्षित रही है ।
रासा की अभ्यासी भारती वैद्य का कहना है - 'भाषा विकास के स्वरूप को देखने पर लगता है कि सभी परिवर्तन भाषा में एकदम स्थिर नही होते, कुछ परिवर्तन नये दाखिल होते है, उसके साथ ही प्राचीन स्वरूप व प्रयोग भी बने रहते है । क्रमशः ये परिवर्तन स्थिरता प्राप्त करते है । २१
भाषा का संक्रान्तिकाल होने से रेवंतगिरि रासमें अपभ्रंशके लाक्षणिक रूपों के साथ ही बोल-चाल - व्यवहारमें आये नये शब्दप्रयोग मिलते है २२ जैसेगिरनार, सोरठ, उजिल, सम्मणि, पालाट, पाज, नीझरण, आदि । रासकी भाषा में ए के स्थान पर इ - ( वज्जइ, रक्खड़ - दीजइ) ओ
के स्थान पर उ आविउ, गलिउ, उद्धरिउ, श के बदले स का प्रयोग हुआ है जैसे - दिसि समीर
आ ।
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यहाँ अगुण, अंबर जैसे शब्द अन्त्य उ रहित है ।
क्वचित्, दिठु के साथ दिइ
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कारिउ कराउ, बिहु - दोउ जैसे रूप भी प्रस्तुत है 'होना' के अर्थमें ठिउ थयो का प्रयोग हुआ है । जैसे संठाविओ-संटव्योस्थाप्यो-ओहट्टए-ओटेछे-ओछु थाय छे जैसे प्रयोग किए है।
दूसममाझि, तित्थंमाहि में माहि, माझि जैसे पूरकों के प्रयोग सप्तमी
रेवंतगिरिरासु - एक परिचय * 517