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और मणिमय बिंब की प्रतिष्ठा की गई-'बिंबु मणिमउ तहिं आणइ।" वस्तुपाल मंत्री ने ऋषभदेव का अठ्ठावय-सम्मेय सिहरवर मंडपु मणहार" व तेजपाल ने नेमिनाथ का मंदिर बनवाया । कल्याणउतउतुंगभुयणु - कल्याणकत्रयतुंगं भवनं - नेमि के तीन कल्याणक संबंधी चैत्य रचवाया । देपालमंत्रीने विशाल इन्द्रमंडप का उद्धार किया। दीसइ दिसि दिसि कुंडिकुंडि नीझरणउ मालो। इंद्रमंडपु देपालि मंत्रि उद्धरिउ विसालो ...॥ ....गयणगंगजं सयलतित्थअवयारु भणिज्जइ । पक्खालिवि तहिं अंगु दुक्ख जलअंजलि दिज्जइ।
रेवंतगिरि के चतुर्थ कडवक में कवि ने अंबिकादेवी के रमणीय देवालयमें यात्री आनंद करते है, मंदिरोमें दर्शन कर संतृप्त होते है. यह दिखाया है।
गिरिगरुया सिहरि चडेवि, अंब-जंबाहि बंबालिउ ए। संमिणी ए अंबिकादेविदेउलु दीठुरमाउलं ए॥ वज्जइ ए ताल कंसाल, वज्जइ मद्दल गुहिरसर । रंगिहि ए नच्चइ बाल, पेखिवि अंबिक मुहकमलु । (गिरि गरवा शिखरे चढी अंबजवाहि बंबाल्यो ए स्वामिनी ए अंबिकादेवी - देवळ दीर्छ रम्य ए वागे ए ताळ कंसाल वागे मृदंग घेरे स्वरे रंगे नाचे बाल पेखी अंबिका मुखकमल) प्रशस्ति के अंत में तीर्थमहिमा व फलश्रुति निरुपित है ।१६ ठामि ठामि ए रयणसोवन्न, बिंब जिणेसर तहिं ठविया पणमइ ए ते नर धन्न, जे न कलिकालि मलमय लिया ए। जं फलु ए सिहरसंमेय, अठ्ठावय नंदीसरिहिं । तं फलु ए भावि पामेइ, पेखेविणु रेवंत सिहरो । रेवंतगिरिका माहात्म्य स्थापित करने के लिये कवि तीन उपमान देते है -
रेवंतगिरिरासु - एक परिचय * 515