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आराध्य स्वीकार करती है। कोई उन्हें 'ब्रह्मा' कहता है, कोई ‘प्रजापति', कोई ‘महादेव', कोई ‘बाबा आदम', कोई 'रेशेफ' और कोई 'बुल गोड' इत्यादि । परंतु 'आदिनाथ रास' का मूल आधार-ग्रन्थ आचार्य जिनसेन प्रणित 'आदिपुराण' ही है। क्योंकि इसी कृति में आदिनाथ का सर्वांगीण विशद विवेचन उपलब्ध होता है | आदिपुराण पर आधारित होने के कारण ही कहीं कहीं इस कृति का उल्लेख 'आदिपुराण रास' नाम से भी मिलता है | "रचना का प्रयोजन'
'आदिनाथ रास' की रचना का प्रयोजन सरल-सुबोध हिन्दी भाषा में अधिकाधिक लोगों को आदिनाथ भगवान के जीवन-चरित्र का ज्ञान कराना है। ब्रह्म जिनदास ने स्वयं कहा है कि जिस प्रकार बालक कठोर नारियल का उपयोग नहीं कर सकता लेकिन उसे साफ करके उसकी गिरि उसे दी जाये तो वह बडे आनंद से उसका स्वाद लेता है, उसी प्रकार देश भाषा में कही गई बात सर्वजन सुलभ हो जाती है -
'कठिन नारियरने दीजि बालक हाथि, ते स्वाद न जाणे ।
छोल्या केल्यां द्राख दीजे, ते गुण बहु माणे ॥' ग्रन्थ की पाण्डुलिपि
_ 'आदिनाथ रास' अद्यावधि अप्रकाशित है । उसका कुछ अंश डॉ. प्रेमचंद रांवका ने अपनी कृति 'महाकवि ब्रह्म जिनदास व्यक्तित्व एवं कृतित्व' में प्रकाशित किया है परंतु वह अपर्याप्त है। किसी सुधी विद्वान को इस कृति का व्यवस्थित संपादन करके प्रकाशन का प्रयत्न करना चाहिए। इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपियाँ उदयपुर, जयपुर, आमेर आदि अनेक स्थानों पर उपलब्ध होती है। उदयपुर में उपलब्ध पाण्डुलिपि वहाँ के श्री पार्थनाथ दिगम्बर जैन खण्डेलवाल बीसपन्थ मंदिर, मण्डी की नाल में पाई जाती है | ग्रन्थ का सामान्य परिचय -
_ 'आदिनाथ राम' ब्रह्म जिनदास की एक बृहद रचना है जो कुल मिलाकर ३४५८ श्लोक-प्रमाण है। इसमें प्रारंभ में आदिनाथ के नौ पूर्व भवों का तथा उसके निमित्त से १४ कुलकरें एवं भोगभूमि आदि का सुंदर विवेचन किया हैं। उसके बाद अयोध्या नगरी एवं नाभिराय-मरुदेवी के वैभव का वर्णन
ब्रह्म जिनदास कृत 'आदिनाथ रास' * 523