Book Title: Jain Ras Vimarsh
Author(s): Abhay Doshi, Diksha Savla, Sima Ramhiya
Publisher: Veer Tatva Prakashak Mandal

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Page 616
________________ का लोभ छोड नहीं सकती हूं। महायोगी आनंदघनजी ने 'अष्टभवांतर वालहो' पद में यही कहा ‘पशुजननी करुणा करी रे, आणी हृदय विचार माणसनी करुणा नहीं रे, ए कुण घर आचार.... . कारण रूपे प्रभु भज्यो रे कृपा करी प्रभु दीजिए रे आनंदघन पद राज ।' और यशोविजयजी ने तो 'तोरण थी रथ फेरी गया रे' पद में इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में राजीमति की उस भावना को स्वर दिया है - 'जो विवाह अवसर दियो रे हाथ उपर नवि हाथ दीक्षा अवसर दीजिये रे सिर उपर जगनाथ... इम विलवती राजुल गई रे नेमी कने व्रत लीध वाचकयश कहे प्रणमीए रे हाँ ऐ दंपति दोउ सिद्ध ।' तो आधुनिक कवियों ने भी अपनी कल्पनासृष्टि के विस्तृत गगन में उडान भरी है। समयाभाव के कारण हमारे लोकप्रिय कवि श्री शांतिलाल शाह की केवल दो-चार पंक्तियाँ उद्धृत कर रही हूं... ___'तोरणथी वर पाछो जाय रे राजुल बहेनी' गीत में सखियों को राजीमति ने ऐसा ही उत्तर दिया - 'मानवी ए तो मोटा रे मनना पाडे नहीं कदी भेद जीवनना दिलमां दया उभराय रे साहेली मोरी तोरणथी वर भले जाय। जाओ भले मारा जीवनना स्वामी तम पगले नयूँ जीवन पामी अंतरमां अजवाळु थाय रे... साहेली मोरी तोरणथी वर भले जाय...।' रचना का भावपक्ष ___ इस रचना की कथा के विषय में इतना कुछ लिखने के बाद भावपक्ष के विषय में अधिक कहना शेष नहीं रहता है। फिर भी एक दृष्टि से - श्री नेमीश्वर रास * 567

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