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(काव्य संगीतमय) ब्रह्म गुलाल मुनिकथाः
(रास-हिन्दी)
प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया 'पारुल', १५८० कुमारस्वामी ले-आउट, बेंगलोर-५६००७८ (मो. ९६११२३१५८०)
'जोगीरासा' आदि छंदों में निबद्ध, दिगंबर आम्नाय के जैन रासा-साहित्य की अंत में जैन मुनि बने हुए एक बहुरुपिया कलाकार की सत्यकथा भूमिका -
'केवल निजस्वभाव को, अखंड बरते ज्ञान । केवलज्ञान कहें उसे, याहि सततु-निर्वाण (होते देहनिर्वाण) ॥"
केवलज्ञान-आत्मा की अनंत शक्ति और सत्तापूर्ण ‘स्वसंवेद्य गहन अनुभूति-प्रतीति-संस्थिति का प्राकट्य...। उसे 'सर्व-संवेद्य' कर विश्वहितार्थ जिन-देशना द्वारा स्पष्ट कर दिया सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने । उस दिव्यदेशना से निसृत 'त्रिपदी' के द्वारा सारे जिनागम द्वादशांगी अंग उपांग आदि अनेक रूपों में बिखरे विस्तृत हुए।
___ उसका एक रूप था बोधकथाओं-दृष्टांतकथाओं द्वारा जीवों को - बालजीवों को - बोधिलाभ प्राप्त कराना । 'बोधि' का यह रूप स्वयं तीर्थंकरो के द्वारा संगीतमय देशना की दिव्यध्वनि में व्यक्त हुआ - ‘मधुर राग मालकौंस में बहती तीर्थंकर की वाणी' और 'गम्भीर तार रव पूरित दिग्विभागस्....।' फिर उन से धर्म कथा - ज्ञानकथाएँ भी कही गई। ‘णाथा धम्म कहा' : 'ज्ञाताधर्म कथा': 'भगवान महावीर की बोधकथाएँ' आदि इसके प्रमाण है। इस प्रकार जिनेश्वरों के श्रीमुख से बही हुई ज्ञानगंगा सूखे-भूखे-प्यासे जनों के लिए शाता-प्रदाता बनी - उसके प्रथम गीतगान से ही - ___'जब तुम्हारे गीत की पहली कडी गाई गई सूखी धरा पर ।
उग गये अंकुर गगन से मेघ बरसा । (देव गणों को भी संगीत नृत्य प्रेरक)२ 574 * छैन. यस. विभश