Book Title: Jain Ras Vimarsh
Author(s): Abhay Doshi, Diksha Savla, Sima Ramhiya
Publisher: Veer Tatva Prakashak Mandal

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Page 629
________________ शेर नहीं तू है कोई गीदड, ध्रग ध्रग तेरी महतारी। हंसी खेल में स्वांग बनाया (और) जिनमत की दीक्षा धारी ।।१२ ब्रह्मगुलालजी बाहर से सिंह बने ही हुए थे और भीतर से तो सिंह वे थे ही । बस... कुमार का यह ताना सुनते ही उनकी वह शेर-चेतना विक्षुब्ध हो उठी, उनके बदन में आग भडकी और आंखो में छा गई खून की लाली । एक ही दहाड, एक ही छलांग और एक ही थापा - निर्दोष पशु बाल बकरी के बच्चे पर नहीं स्वयं ताना मारनेवाले राजकुमार ही पर !!! और इस आकस्मिक आक्रमण से घायल होकर, सुधबुध खोकर राजकुमार जमीन पर गिर पडा - सारी राजसभा में भय, आतंक और सन्नाटा छा गया ... । शेर अपना 'खेल' पूरा कर सभा से चला गया और कुमार के प्राणपखेरु काया-पिंजर छोडकर दुनिया से । दूसरी ढाल में राजा को मुनिवेश में बोध है। (इधर) राजा के इस वज्राघात - से घोर दु:ख का क्या कहना ? परंतु फिर भी उनके भीतर बैठे उदार मना नर-राज ने अपने वचन-पालन का उतना ही परिचय दिया, जितना कि वनराज-सिंह बने हुए बहुरूपिया ब्रह्मगुलाल ने 'खेल' को (स्वांग को) न्याय देने अपने कर्तव्य-पालन का। इतना ही नहीं, राजा की समता, सहिष्णुता और धीरज ने एक पितृ-सहज पुत्रशोक के वज्राघात और पुत्र विरह को भी उभरने नहीं दिया । इधर अपने खेल-रूप कर्तव्य-पालन को संपन्न करते हुए भी इस हिंसाकृत्य के कारण ब्रह्मगुलाल को भी अपार दुःख, क्षोभ और पश्चाताप हुआ। व्याकुल हो वे पश्चाताप की प्रचंड अग्नि में वे झुलसने लगे, न भूख-प्यास का पता, न नींद या आराम का ठिकाना । उधर मंत्री ने अपने उपर कोई भी कलंक नहीं आया देखकर, अपनी दूसरी चाल के दाव फेंकते हुए राजा के कान भरे - ___ 'राजन् जिसके कारण आपको इतना दु:ख और कष्ट हुआ, उस ब्रह्मगुलाल से कहिए के अब वह निग्रंथ, वीतराग जैन मुनि का स्वांग भरकर सभा में आयें और सांत्वन उपदेश सुनायें ।' राजा ने भी इस राय को मानकर ब्रह्मगुलाल को इस प्रकार के मुनिवेश में सभा में आने का आदेश दिया। मंत्री ने सोचा कि वे (ब्रह्मगुलाल) ऐसा नहीं करते है तो उनकी ही 580 * छैन. रास. विमर्श

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