Book Title: Jain Ras Vimarsh
Author(s): Abhay Doshi, Diksha Savla, Sima Ramhiya
Publisher: Veer Tatva Prakashak Mandal

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Page 631
________________ से भर गया और ब्रह्मगुलालजी की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए बोले - (कुंकुम छंद) 'दिख अवस्था मुनिरूप की, राग-द्वेष-छल को त्यागा। कहा होय के परगट मांगो जो तुम को अच्छा लागा। - तब मुनिराज, अभी तो वेशधारी मुनिराज, बोले - 'बोले ब्रह्मगुलाल मुनि, वैराग्य भाव में मन जागा । क्षमा कीजिये, हम बनवासी इच्छा का तोडा तागा ।।' ले कमंडलु, पींछी, सबकुछ छोड चलें पर उपकारी। हंसी खेल में स्वांग बनाया जिनमत् की दीक्षा धारी ॥५ राजसभा समाप्त हुई पर मुनिवेश धारी ब्रह्मगुलालजी राजसभा से निकल कर बिना कोई राज पुरस्कार लिए घर की ओर नहीं, बन की ओर चले...। चौथी ढ़ाल में मुनि को मनाने स्वजन नगर के नर-नारियों में 'हा-हा कार' मच गया। उनकी पत्नी, मातापिता और स्वजनों पर वज्राघात पडा । नव-मुनि के पास वन में पहुंचकर उन्हें पुन: घर लाने की उनकी सभी प्रार्थनाएँ व्यर्थ, सभी रोना-धोना निष्फल, सभीका सर पटकना नाकामयाब । ___ मुनि वेशधारी ब्रह्मगुलाल वास्तव में ही 'मुनि' बनकर, मन-वचन-काया को मौन बनाकर वन में बैठ गयें (साहित्य सृजन भी किया)... फिर तो 'मन मस्त हुआ तब क्यों बोले ?' यही बात थी। नकल करते करते जो 'असल' वस्तु के स्वाद को, असली आनंद को, पा गया, उसे संसार के नकली-आभासीसुख वापिस कैसे खींच सकते थे ? आत्मानुभूति की ऊंचाई पर जो पहुँच गया, वह भौतिक सुखों की खाई की गहराई में वापस कैसे उतर सकता था ? आत्मदर्शन की ध्यानाग्नि में जो अपने पूर्वजन्मार्जित कर्म भस्मीभूत करते बैठ गया उसे वे कर्म फिर से उत्पन्न होकर कैसे सता सकते थे ? 'आत्मज्ञान वहाँ मुनिपना' - अप्पणाणे मुनि होई - की - भीतरी आत्मज्ञानप्राप्ति की ओर बाह्यांतर निग्रंथदशा की ओर जो अग्रसर हो गया है, उसे कौन रोक सकते थे ? पांचवी, छठ्ठी, सातवीं ढ़ालों में मित्र का समझाना, और उन्हीं का शिष्य बनना, संवाद दर्शाया है। पत्नी-और माता तो क्या, बाद में समझाने पहुंचे हुए उनके परममित्र 582 * छैन यस. विमर्श

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